Wednesday 29 August 2018

ग्रामीण परिदृश्य " भाग - 1"

ग्रामीण परिदृश्य भाग-1
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हम जागे हुए थे तब के,

जब सूरज भी चादर तान के सो रहे थे। घुप्प घनी अँधेरी रात थी, आ आसमान में तारों की टिमटिमाहट से जितना भी प्रकाश निकल रहा था,उपयुक्त था गाय-भैंस के खूँटा आ पगहा देखने के लिये।


गइया आधे घंटे से पूंछ पीट रही है, शायद मच्छर लग रहा हो। वैसे चरने जाने का समय भी हो गया है। कभी-कभी तो ऐसा लग रहा है मानो एक ही झटके में खूँटा तोड़कर खुले में दौड़ लगा देगी, आजाद हो जाएगी इन रस्सी-पगहा के बंधनो से। फिर जी भर चरेगी, जितनी हरियरी दिख रही है, मिनटों में साफ कर देगी।


चापाकल से लोटा में पानी भरते ही बछिया रंभाती है, उसे लगता है कि बस अब कुछ ही देर में चारा मिलेगा। एक लोटा पानी, खइनी की चुनौटी, और ललकी गमछी का मुरेठा बाँधने के साथ ही गाय-भैंस के साथ कूच करते हैं कुछ मील की दूरी के लिए।


सुबह-सुबह जब ठंडी पुरुआ हवा देह में लगती है तो ऐसा लगता है मानो अंग-अंग नहला देगी। रास्तेभर कहीं कीचड़ नहीं हैं। मकई के छोटे-छोटे पौधों की कोंपलों के ऊपर बारिस की कुछ बूँदें बिल्कुल मोती की तरह चमक रही हैं। अभी अभी  सावन बीते हैं।  रात में हल्की-फुल्की बारिस भी हुई थी, पर आसमान अभी साफ हैं। सप्तऋषि, अरे वही सतभइया, नीचे सरककर अस्त होते दिख रहे हैं। हरी पत्तियों के बीच गुलाब के फूल अपनी आभा बिखेर रहे हैं। चमेली की सुगंध रजुआ के बागान से चलकर दूर-दूर तक अपनी खुश्बू बिखेर रही है। बाकी पेड़ पौधे चिर निद्रा में सो रहे हैं।




“छह फुट लंबा कद, साँवला रंग, मोटी और घनी मूँछें, बड़ी-बड़ी आँखें और इन सबके मालिक कपिलचन जादो बाएं कांधे पर चद्दर डाले चले आ रहे हैं। उनकी आँखों मे ऐसी चमक जिसे देखकर सामने वाला क्या तलवार की धार भी बेधार हो जाए। अभी सत्तरवा सावन देखे हैं। एक समय था जब बंगाल में इनकी तूती बोलती थी, अखाड़े के सरदार थे, चित करने वाला कोई हुआ ही नहीं। वैसे प्यार से लोग ‘‘बिहारी पहलवान’’ के नाम से बुलाते थे। 


कुदरत का दस्तूर है कि उम्र के अंतिम पड़ाव पर आदमी को किकुरना पड़ता हैं। वो कहते हैं न कि समय की मार बड़ी भयावह और कष्टप्रद होती है, लेकिन कपिलचन जादो की आवाज अभी भी नौजवानों को मात देती है। समय बदला, कुछ साल गुजरे, मलकिनी तो पहले ही गुजर चुकी थीं, आखिरकार लौटकर आना पड़ा उन्हें अपने गाँव।


‘‘इस बार गाय-भैंस के लिए बहुत अच्छा संयोग बना हैं। सुबह से लेकर दोपहर तक चराते रहो, दोपहर में वहीं पीपर के नीचे गमछा बिछाकर सो जाओ और जब घड़ी में शाम के साढ़े पाँच बजे लौट आओ घर के लिए‘‘ कपिल जादो ने कहा।


हं जी, इसी को न कहते हैं “घर फूटे, जवार लूटे।“


‘‘दो भाईयों के आपसी झगड़े में इस बार आठ बीघा खेत परती (खाली) रह गया है। पहले राय जी लोग का झगड़ा को पर-पंचायत से ही सुलझ जाता था। आजकल थाना-पुलिस, कोर्ट-कचहरी सब हो जाता है, न कोई तो कोई सामाजिक बंधन है और न ही परिवार की मान-मर्यादा का ख्याल। वैसे लोग न जाने किस दुनिया में रहने लगे हैं, छोटे-मोटे झगड़े को भी कोर्ट-कचहरी ले जाते देर नहीं करते। मकान एक, दरवाजे तीन और उसमें भी रोज लड़ाई-झगड़ा। इसीलिए तो खेत की बुआई नहीं हो पाती, परती रह जाती है उनकी जमीन।‘‘ ललन काका ने कहा। 



‘‘हं, आठ साल से तो इस जमीन पर मुकदमा चल रहा हैं। अब खेती भला कोई कैसे करे। वैसे भी उनके घर में खेती करने वाला कौन है? दो लड़के हैं, दोनों नौकरी करते हैं-एक नोएडा  में है तो दूसरा पूना में। पहले जमीन का बंदोबस्त कर दिया जाता था, पर आपसी रंजिश में अब वह भी खाली पड़ी हैं।‘‘ मूँछों पर हाथ फेरते हुए कपिल जादो ने कहा।



‘‘घर-घर का यही हाल है। क्या अपना, क्या पराया! सब इहे चाहता है कि गाँव का जमीन-जायदाद बेचकर शहर में एक-आध कट्ठा के दरबा में रहना।‘‘ ललन काका ने कहा।


‘‘हं, अब गाँव की खेती-बारी भला किसे पसंद।‘‘ इस बार कपिल जादो निराश होकर बोले.


‘‘अब आप ही बताइए कि सभ लोग शहर में सुख से रहते हैं क्या? जो अप्पन जमीन-जायदाद आ डीह बेचा है, वो सुखी है क्या?‘‘ ललन काका खइनी मलने के बाद ठोकते हुए पूछे।


बरमेश्वर राय अपने गाँव भर में सबसे ज्यादा खेत वाले थे। पूरे जवार में उनका नाम था। छः फुट दो इंच का मर्द, शरीर से हट््ठा-कट्ठा, गोरा-चिट्टा, गज भर का छाती और ऊपर से जितने सख्त, अंदर से उतने ही मुलायम। कोई भी जमीन जायदाद का मामला हो या किसी बात के लिए झगड़ा-विवाद हो, पंचायत में उनकी बात हर कोई मानता था। उनके रहते कोई भी केस फ़ौजदारी नहीं होता था। वे न्याय के बिल्कुल पक्के आदमी थे।‘‘ इतना कहते ही कपिल जादो के आँख से आँसू टपकने लगे।

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उस साल बाढ़ आने की वजह से खेत में तो दूर खाने के लिए अनाज तक नसीब नहीं था। मेरी मंझली बेटी की शादी करनी थी, लड़का अच्छे घर-परिवार से था, पसंद आ गया, शादी तो तय हो गई लेकिन पैसा आये तो कहाँ से?‘‘ गमछे के कोर से अपनी आँखे पोछते हुए कपिल जादो ने बोलना जारी रखा। 


मैं उनका कभी एहसान नहीं भूल पाउँगा। नहीं चुका पाऊंगा उनकी नेकी। जब तक वह जिंदा रहे, तब तक दुआर पर दिन में एक बार जाना हो ही जाता था। शायद ही ऐसा कोई दिन गया हो कि उनके घर का चाय नहीं पिया मैंने! पर-परोजन, चाहे कोई भी फंक्शन हो, सबसे पहले मेरी पूछ होती। हर काम में कपिल... कपिल।



अपना दुखड़ा लेकर उनके पास पहुँचा था तो देखते ही मुझे पहचान लिए। बैठने का इशारा करते हुए पूछ बैठे - क्या बात है कपिल!, आज तनिक उदास लग रहे हो? मैंने अपनी पूरी बात बताई भी नहीं कि मुझे बीच में ही रोकते हुए बोले ‘‘अरे बेटी किसी एक की बेटी नहीं, पूरे गाँव की इज्जत होती है".. किसी सोच में मत पड़ो। हं, जब चाहे, जितने पैसे रुपये की जरूरत हो, बता देना। 


‘‘हं जी, पहले के लोग भी बड़े कलेजे वाले होते थे।‘‘ उदास भाव मे ललन काका ने खइनी थमाते हुए बोले।


गायों और भैसों के झुंड भी कुछ ही दूरी पर थे। पशुओं के इस झुंड में दो कुत्ते भी थे। एक काला रंग का और दूसरा उजला और भूरा रंग का, जो अक्सर लोगों के साथ ही कभी पेड़ की छाव में रहते या कभी-कभी झुण्ड के पास चले जाते। इन पशुओं के साथ कुछ पक्षी अठखेलियाँ कर रहे थे। बगुले कभी उनकी पीठ कभी चोंच मारते तो कभी पीठ के ऊपरी हिस्से, डील पर फिराते। फिर कभी सींग या कान पर जाकर कुछ कीलों को चुनते और खाते। ऐसा होते हुए भी पशु बड़े सुकून से घास चरने में व्यस्त थे।


सुबह के नौ बज चुके थे, और बहुत दूर जहाँ से आकाश और ज़मीन एक साथ जुड़ते हैं उस स्काईलाइन पर एक छोटा लड़का दिखाई दे रहा है। उसके हाथ में कोई बर्तन है जो सूरज की किरणों से चमक रहा है। शायद वो पानी या और कुछ खाने के लिए ला रहा हो।


बगल से गुजरते हुए ट्रैक्टर पर भोजपुरी गीत बज रहा है, बोल हैं-


ओढ़नी के रंग पिअर, जादू चला रहल बा...
लागता जइसे खेतवा में सरसों फुला रहल बा...


ट्रैक्टर अब दूसरी दिशा में मुड़ कर जा रहा है। पर मन गाना सुनने को लालायित हो रहा है, बाकी अंश सुनने को जी तरस रहा है। गाने के कुछ शब्द ट्रैक्टर की ककर्श आवाज तो कुछ ट्रैक्टर के दूर जाने से गुम होते जा रहे हैं। 


................................................भाग-11 

@सु जीत, बक्सर।