Thursday 13 December 2018

चुनाव

चुनाव आ गईल

गाँवे गाँवे नेतन के पइसार हो गईल
का मानी ए भइया, चुनाव आ गईल।

खेती में कम भईल अनाज के दरद
नेताजी के  होखे लागल देखी-देखी दरद
आस्वासन आ कृषी लोन माफ के बहार आ गईल
का मानी ए भइया, चुनाव आ गईल।

उजरे उजर सूट-बूट वाला लोगन के भारमार हो गईल
गली,चौक-चौराहा प मीट आ दारू के बहार आ गईल
लोगन के सुख-दुख में लोर बहावे के हद पार हो गईल
का मानी ए भइया, चुनाव आ गईल।

गरीब के झोपड़ी देखी उड़ल नेता लो के खोपड़ी
बात बात प चु-चु,  चु-चु आ आह भरे के बार आ गईल
हाथ जोड़े,माथ झुका के गोड़ लागे के हद पार हो गईल
का मानी ए भईया, चुनाव आ गईल।

जीते वाला जीती के फरार रहले साढ़े चार साल
हारे वाला फेरु ना झकले जबले बीतल चार साल
बोलोरो,इस्कार्पियो के धुरी देखी "छोटुआ" हैरान भ गईल
का मानी ए भईया, चुनाव आ गईल।


[कतने साल बीतत,नेता लोसे अब विश्वास पार हो गईल
रोड ख़ातिर निहार लोगन के आँखी से अन्हार हो गईल
अबकी बार फेरु झूठन के तेव्हार आ गईल
का मानी ए भईया, चुनाव आ गईल।]

सुजीत, बक्सर।

Monday 5 November 2018

शुभ दिवाली

जा एगो दीया पुरनका घरे भी जरा दिहs.

सन्ध्या हो चली थी। समय लगभग साढ़े पांच बजने वाले थे। गावँ के ज्यादातर लड़के नहा-धोकर एक थाली में मिट्टी के सात-आठ दीये, घी से लिपटी हुई बाती और एक माचिस लिये तेजी से जा रहे थे। इन जाने वाले लड़को का गंतव्य था कोई गावँ के ब्रह्म बाबा, काली माई, डीहबाबा या शंकर भगवान का शिवाला।

माँ बार बार कह रही थी। लेट हमारे घर में ही होता हैं। सब लोग चल जायेगा तब तुम जाओगे। भगवान के पास दीया शाम को जलाया जाता हैं रात में नहीं। जल्दी जाओ देर हो चुका हैं।

फटाफट नहा धोकर एक थाली में कुछ दीये, बाती और एक माचिस लिए मैं भी निकला, चूंकि मुझे लगता हैं कि दीये जलाने वालों में से मेरा नाम अन्तिम दस लोगों में होगा।
जल्दीबाजी ऐसी थी कि चप्पल लगाना भी भूल गया था। ब्रह्मबाबा, बजरंग बली, शंकर भगवान के स्थान पर दीया जलाने के बाद पुराना घर की समीप जाते ही लौट गया अपने अब तक के चौदह पंद्रह साल पहले...

दिवाली का दिन था। पूरे गावँ में खुशी का माहौल था। सब अपने अपने छत पे चढ़कर पूरे दीवाल पर डिजाइन में मुम्बत्तीयाँ जलाने, फटाखे फोड़ने में मशगूल था। मेरे लिए भी भइया कुछ पटाखे लाये थे। पटाखों का वितरण सबके लिए किया गया।  मुझे जो भी मिला उसमें ज्यादातर छुरछुरी और एकादुक्का लाइटर और दो आकाशबाड़ी था।

"हम लड़को ने आपस में मिलकर छत पे एक छोटा सा दिवाली घर बना रखे थे। पहली बार मुझे एहसास हुआ था कि घर बनाना बहुत आसान काम हैं बस एक दो दिन में तो सबकुछ बन जाता हैं। दिवाली घर के छत पर  जाने की सीढ़ियां और उसके ऊपर एक पक्षी जिसको बनाने का श्रेय दीदी का था। घर की पेंटिंग और डिजाइन बनाने का काम बड़े भाई एवं मेरा काम था कुछ ईंटो, पीली मिट्टी, रंग, और समय समय पर बताये हुए काम को चपलता के साथ करना।"
उस बार की दिवाली  मेरे लिए दुखद सन्देश लाई थी। पटाखा छोड़ने के बाद पुनः छत से नीचे उतरके दो तीन पुड़ी सब्जी खाके दुबारा बचे हुए पटाखों को खत्म करने के लिए  छत पे गया।
इस बार का पटाखा थोड़ा ज्यादा खतरनाक था। जलाने के बाद बगल की गली में फेंकना चाह रहा था कि गली में न जाके बगल वाले पड़ोसी के फुस का भूसा रखने वाला  "खोंप" के ऊपर जा गिरा।
फिर क्या था मिनट भर की देरी में ही आग फैल गई और पूरे गाँव में आग आग हल्ला हो गया। जब एक छोटा भाई घर में बताया कि इसके कारण ही आग लगी हैं। पापा से मुझे खूब जम के धुलाई हुई और रोने की आवाज सुनकर जिनके यहाँ आग लगी थी आये और कहने लगे.
"बच्चे को मत मारिये आपलोग.. अनजान में गलती हो गई हैं उससे"
रोता हुआ मेरे मन में एक अलग ही आत्मीय सुखद आश्चर्य की अनुभूति हुई।
[ भले लोग के साथ हमेशा ही भला ही होता हैं। आज बेरोजगारी के दौर में उनके चार लड़को में तीन सरकारी जॉब में हैं]
मेरी तरफ से आप सभी को शुभ दीपावली

Thursday 20 September 2018

माँ की ममता

आज दूसरा दिन था.. मां बेहद आहत थी और उसे ऐसा लग रहा था कि बच्चा आँख खोल देगा...

गाड़ियों को आना-जाना लगा हुआ था. बगल के पुल पर और भी बहुत से बंदर देख रहे थे, उनकी आँखे भी गीली थी और मन में एक ही पच्छताप हो रहा था. हम क्यों बच्चे को लेकर इस रास्ते से गुजरे.

माँ अपने बेटे को जोर-जोर से झकझोरती और पुनः उठाने के लिये उसकी आँखें खोलती पर आँखे तो सदा के लिए बंद हो चुकी थी. कभी उसे दुलारती कभी पुचकारती तो कभी-कभी केले के टुकड़े को उसके मुँह तक ले जाती पर नहीं खाने पर गले लगाती और ऐसा लग रहा था कि वो  पूछना चाहती हैं " क्यों नहीं खा रहे हो?. कभी उसके बालों में से जुयें को निकालती और उसे खा लेती..

आने जाने वाले वे लोग जो पैदल या साइकिल से गुजरते और कुछ मिनट के लिए ऐसी घटना को देखकर भावुक हो जाते और यहाँ तक कि किसी- किसी के आँखों से आँसू भी निकल आते और उन्हें याद आती " माँ की ममता...

बीस घंटे गुजर चुके थे.और बंदरिया अपने बच्चे से बिल्कुल अलग नहीं हो रही थी. न उसे खाना की फिकर थी और न प्यास लग रही थी, बस उसे अपने बच्चे को काल के गाल से खींचने की आस लगी थी. शायद उस समय उसे खुद का भी प्राण त्यागने में भी कोई ग्लानि महसूस नहीं होती!

अन्त में देखा गया कि बंदरों की झुंड से एक बूढ़ा बंदर  निकला, ऐसा लग रहा था वो उनलोगों का शायद मुखिया हो और एक दो उसके सम उम्र बंदर उसके पास गये और कुछ देर वहाँ बैठकर कुछ आपस मे बात करने लगे. शायद वो जीवन-मृत्यु के रहस्य और सहानुभूति प्रकट करा रहे थे.

दस मिनट बाद अब धीरे धीरे बाकी बन्दर भी इकठ्ठा होने लगे और उस बनदरिया को साथ लेकर चले गए. जाने के क्रम में बंदरिया बार बार पीछे मुड़कर देखती पर असहाय  हो पैर आगे बढ़ा लेती..

{ कृपया सड़क पर चलते समय ध्यान रखें, मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षियों के भी परिवार होते हैं। सुख- दुःख की अनुभूति उन्हें भी होती हैं}

@सुजीत, बक्सर.

Friday 7 September 2018

बरसात

कड़कड़ाती हुई बिजलीं की गर्जना पुरूब टोला से होते हुए दखिन की तरफ़ निकल गई और ऐसा लगा कि सीधे कपार पर ही गिरेगी.करेजा एकदम से धकधका गया, कांप गया पूरी तरह से, ऐसा लगा कि जीवन लीला ही समाप्त हो जायेगी.


 बगल में बैठे 'शेरुआ', जो गाय की चट्टी पर गहरी नींद में सो रहा था, लुत्ती के रफ्तार से कान और पूँछ दुनो पटकते हुए खड़ा होकर इधर उधर  भागने लगा।

सच में जब जब बरसात आती हैं न 'कभी खुशी कभी गम' वाला एहसास दिलाती हैं. इतना जोर जोर से बारिस होके एकदम से कीच कीच कर देता हैं. अभी कल ही रिंटुआ का पैर छटकने से कुल्हा मुछक गया, डुमराँव जाकर दिखाया गया, पूरे सात सौ रुपया लगा हैं.



जब तेज बारिश होने लगती हैं न तो छत से टप टप पानी चुकर पुरा घर पानी पानी कर देता हैं, छत से चुने वाला पानी के लिए दो बाल्टी और एक जग स्पेशल रखा जाता हैं और इसके लिए घर का सबसे छोटा लड़का डिटेल किया जाता हैं, जो बार बार पानी बाहर आँगन में या चापाकल तक फेंकता हैं और इसका मेहनताना पाँच रुपये वाला 'छोटा भीम" के लिए दिया जाता हैं..


बारिस इतना जोरदार हो रही हैं कि गड़हा नाला नाली सब  भर गया हैं और तरह तरह के बेंग( मेढ़क) का जुटान हो गया हैं. लगता हैं कि रातभर इनका टर्र टर्र की बारात लगती रहेगी.


आसमान तो साफ हैं, बादल की घटा भी नहीं दिख रही हैं, आज जोलहा भी खूब उड़ रहा हैं..पक्षियों का झुंड भी आसमान में ऐसे कौतूहल कर रहा हैं जैसे कोई बड़ी ख़ुशी मिल गई हैं लेकिन इन सबसे इतर चार-पांच कौआ शिरीष के दंडल पर बैठें शोक सभा कर रहे हैं, देखकर ऐसा लगता हैं कि इन लोगों का आशियाना  उजड़ गया हैं।


नेवला का झुंड बगीचे से बाहर आकर अठखेली कर रहे हैं, शायद इनका भेंट साँप से नहीं हुआ हैं। पिछले साल की ही तो बात हैं., करियठ बड़का साँप और नेवले की लड़ाई आधा घंटा होते रह गई थी और अंत में सांप को हार मानना पड़ गया था..


सांझ का टाइम होने वाला हैं. मच्छड़ ऐसा लग रहे हैं कि आकाश में उड़ा ले जायेगे. भइसी के इंहा धुंआ करने का गोइठा भी भींज गया हैं. जो सियार सालों भर दिखते नहीं थे, एक दलानी के कोना में सुकुड़ कर बैठा हैं..

इस साल तो और दुलम हो गया, जो गाय/भैंस के रहने के लिए जो छावन करकट अभी पिछले साल खरीदा था, आँधि-पानी आने से बीचे से टूट गया हैं. ऐसा लगता हैं कि भगवान भी गरीबों को ही सताते हैं.


अरे, लड़का लोग खड़ा होके क्या देख रहा हैं.
ओ... लगता हैं कि किसी का मोटरसाइकिल फसा गया हैं करियठ माटी में. अब त उसका निकलना मुश्किलें हैं साँझ तक. आकाश में धनुषाकार इंद्रधनुष अपना सातों रंग बिखेर रहा हैं तो उसके बगल से 'गूंगी जहाज' गुजरते ऐसे दिख रही हैं जैसे कोई बगुला हो.


उधर पता लगा हैं कि गंगा जी भी बान्ह तक आ गई हैं.
लोग पूनी कमाने के लिए रोज  गंगा स्नान करने जा रहे हैं पर इन्हें पता नहीं कि पान साल पहिले इसी नदी में रमेशसर काका का गोड़ फिसल गया था और डूब गए थे.


लग रहा हैं कि  हथिया नक्षतर इस बार कबार के बरसेगी, काश! सोनवा भी खूब बरसता।, ताकि गिरहतो का अनाज साल भर खाने के लिये हो जाता और कुछ घर चलाने के लिए, ताकि आत्महत्या नहीं करना पड़ता.

खरिहानी में कुछ लोगों का समूह अर्धगोलार्द्ध रूप लेकर इन बरसात से इतर किसी राजनीतिक चर्चा पर अपना प्रसंग बांध रहा हैं. कोई अपने अनुभव को सर्वोच्च मनाने पर तुला हुआ हैं तो कोई उसे डाँट कर अपना ज्ञान बघार रहा हैं.  जिसे महज ये पता नहीं कि हमारे सूबे में लो.स. या विधान. सभा. की कितनी सीटे हैं वो भी अपना झंडा गाड़ने पर अडिग हैं. इसबार तो बीजेपी ही जीतेंगी....


Wednesday 29 August 2018

ग्रामीण परिदृश्य " भाग - 1"

ग्रामीण परिदृश्य भाग-1
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हम जागे हुए थे तब के,

जब सूरज भी चादर तान के सो रहे थे। घुप्प घनी अँधेरी रात थी, आ आसमान में तारों की टिमटिमाहट से जितना भी प्रकाश निकल रहा था,उपयुक्त था गाय-भैंस के खूँटा आ पगहा देखने के लिये।


गइया आधे घंटे से पूंछ पीट रही है, शायद मच्छर लग रहा हो। वैसे चरने जाने का समय भी हो गया है। कभी-कभी तो ऐसा लग रहा है मानो एक ही झटके में खूँटा तोड़कर खुले में दौड़ लगा देगी, आजाद हो जाएगी इन रस्सी-पगहा के बंधनो से। फिर जी भर चरेगी, जितनी हरियरी दिख रही है, मिनटों में साफ कर देगी।


चापाकल से लोटा में पानी भरते ही बछिया रंभाती है, उसे लगता है कि बस अब कुछ ही देर में चारा मिलेगा। एक लोटा पानी, खइनी की चुनौटी, और ललकी गमछी का मुरेठा बाँधने के साथ ही गाय-भैंस के साथ कूच करते हैं कुछ मील की दूरी के लिए।


सुबह-सुबह जब ठंडी पुरुआ हवा देह में लगती है तो ऐसा लगता है मानो अंग-अंग नहला देगी। रास्तेभर कहीं कीचड़ नहीं हैं। मकई के छोटे-छोटे पौधों की कोंपलों के ऊपर बारिस की कुछ बूँदें बिल्कुल मोती की तरह चमक रही हैं। अभी अभी  सावन बीते हैं।  रात में हल्की-फुल्की बारिस भी हुई थी, पर आसमान अभी साफ हैं। सप्तऋषि, अरे वही सतभइया, नीचे सरककर अस्त होते दिख रहे हैं। हरी पत्तियों के बीच गुलाब के फूल अपनी आभा बिखेर रहे हैं। चमेली की सुगंध रजुआ के बागान से चलकर दूर-दूर तक अपनी खुश्बू बिखेर रही है। बाकी पेड़ पौधे चिर निद्रा में सो रहे हैं।




“छह फुट लंबा कद, साँवला रंग, मोटी और घनी मूँछें, बड़ी-बड़ी आँखें और इन सबके मालिक कपिलचन जादो बाएं कांधे पर चद्दर डाले चले आ रहे हैं। उनकी आँखों मे ऐसी चमक जिसे देखकर सामने वाला क्या तलवार की धार भी बेधार हो जाए। अभी सत्तरवा सावन देखे हैं। एक समय था जब बंगाल में इनकी तूती बोलती थी, अखाड़े के सरदार थे, चित करने वाला कोई हुआ ही नहीं। वैसे प्यार से लोग ‘‘बिहारी पहलवान’’ के नाम से बुलाते थे। 


कुदरत का दस्तूर है कि उम्र के अंतिम पड़ाव पर आदमी को किकुरना पड़ता हैं। वो कहते हैं न कि समय की मार बड़ी भयावह और कष्टप्रद होती है, लेकिन कपिलचन जादो की आवाज अभी भी नौजवानों को मात देती है। समय बदला, कुछ साल गुजरे, मलकिनी तो पहले ही गुजर चुकी थीं, आखिरकार लौटकर आना पड़ा उन्हें अपने गाँव।


‘‘इस बार गाय-भैंस के लिए बहुत अच्छा संयोग बना हैं। सुबह से लेकर दोपहर तक चराते रहो, दोपहर में वहीं पीपर के नीचे गमछा बिछाकर सो जाओ और जब घड़ी में शाम के साढ़े पाँच बजे लौट आओ घर के लिए‘‘ कपिल जादो ने कहा।


हं जी, इसी को न कहते हैं “घर फूटे, जवार लूटे।“


‘‘दो भाईयों के आपसी झगड़े में इस बार आठ बीघा खेत परती (खाली) रह गया है। पहले राय जी लोग का झगड़ा को पर-पंचायत से ही सुलझ जाता था। आजकल थाना-पुलिस, कोर्ट-कचहरी सब हो जाता है, न कोई तो कोई सामाजिक बंधन है और न ही परिवार की मान-मर्यादा का ख्याल। वैसे लोग न जाने किस दुनिया में रहने लगे हैं, छोटे-मोटे झगड़े को भी कोर्ट-कचहरी ले जाते देर नहीं करते। मकान एक, दरवाजे तीन और उसमें भी रोज लड़ाई-झगड़ा। इसीलिए तो खेत की बुआई नहीं हो पाती, परती रह जाती है उनकी जमीन।‘‘ ललन काका ने कहा। 



‘‘हं, आठ साल से तो इस जमीन पर मुकदमा चल रहा हैं। अब खेती भला कोई कैसे करे। वैसे भी उनके घर में खेती करने वाला कौन है? दो लड़के हैं, दोनों नौकरी करते हैं-एक नोएडा  में है तो दूसरा पूना में। पहले जमीन का बंदोबस्त कर दिया जाता था, पर आपसी रंजिश में अब वह भी खाली पड़ी हैं।‘‘ मूँछों पर हाथ फेरते हुए कपिल जादो ने कहा।



‘‘घर-घर का यही हाल है। क्या अपना, क्या पराया! सब इहे चाहता है कि गाँव का जमीन-जायदाद बेचकर शहर में एक-आध कट्ठा के दरबा में रहना।‘‘ ललन काका ने कहा।


‘‘हं, अब गाँव की खेती-बारी भला किसे पसंद।‘‘ इस बार कपिल जादो निराश होकर बोले.


‘‘अब आप ही बताइए कि सभ लोग शहर में सुख से रहते हैं क्या? जो अप्पन जमीन-जायदाद आ डीह बेचा है, वो सुखी है क्या?‘‘ ललन काका खइनी मलने के बाद ठोकते हुए पूछे।


बरमेश्वर राय अपने गाँव भर में सबसे ज्यादा खेत वाले थे। पूरे जवार में उनका नाम था। छः फुट दो इंच का मर्द, शरीर से हट््ठा-कट्ठा, गोरा-चिट्टा, गज भर का छाती और ऊपर से जितने सख्त, अंदर से उतने ही मुलायम। कोई भी जमीन जायदाद का मामला हो या किसी बात के लिए झगड़ा-विवाद हो, पंचायत में उनकी बात हर कोई मानता था। उनके रहते कोई भी केस फ़ौजदारी नहीं होता था। वे न्याय के बिल्कुल पक्के आदमी थे।‘‘ इतना कहते ही कपिल जादो के आँख से आँसू टपकने लगे।

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उस साल बाढ़ आने की वजह से खेत में तो दूर खाने के लिए अनाज तक नसीब नहीं था। मेरी मंझली बेटी की शादी करनी थी, लड़का अच्छे घर-परिवार से था, पसंद आ गया, शादी तो तय हो गई लेकिन पैसा आये तो कहाँ से?‘‘ गमछे के कोर से अपनी आँखे पोछते हुए कपिल जादो ने बोलना जारी रखा। 


मैं उनका कभी एहसान नहीं भूल पाउँगा। नहीं चुका पाऊंगा उनकी नेकी। जब तक वह जिंदा रहे, तब तक दुआर पर दिन में एक बार जाना हो ही जाता था। शायद ही ऐसा कोई दिन गया हो कि उनके घर का चाय नहीं पिया मैंने! पर-परोजन, चाहे कोई भी फंक्शन हो, सबसे पहले मेरी पूछ होती। हर काम में कपिल... कपिल।



अपना दुखड़ा लेकर उनके पास पहुँचा था तो देखते ही मुझे पहचान लिए। बैठने का इशारा करते हुए पूछ बैठे - क्या बात है कपिल!, आज तनिक उदास लग रहे हो? मैंने अपनी पूरी बात बताई भी नहीं कि मुझे बीच में ही रोकते हुए बोले ‘‘अरे बेटी किसी एक की बेटी नहीं, पूरे गाँव की इज्जत होती है".. किसी सोच में मत पड़ो। हं, जब चाहे, जितने पैसे रुपये की जरूरत हो, बता देना। 


‘‘हं जी, पहले के लोग भी बड़े कलेजे वाले होते थे।‘‘ उदास भाव मे ललन काका ने खइनी थमाते हुए बोले।


गायों और भैसों के झुंड भी कुछ ही दूरी पर थे। पशुओं के इस झुंड में दो कुत्ते भी थे। एक काला रंग का और दूसरा उजला और भूरा रंग का, जो अक्सर लोगों के साथ ही कभी पेड़ की छाव में रहते या कभी-कभी झुण्ड के पास चले जाते। इन पशुओं के साथ कुछ पक्षी अठखेलियाँ कर रहे थे। बगुले कभी उनकी पीठ कभी चोंच मारते तो कभी पीठ के ऊपरी हिस्से, डील पर फिराते। फिर कभी सींग या कान पर जाकर कुछ कीलों को चुनते और खाते। ऐसा होते हुए भी पशु बड़े सुकून से घास चरने में व्यस्त थे।


सुबह के नौ बज चुके थे, और बहुत दूर जहाँ से आकाश और ज़मीन एक साथ जुड़ते हैं उस स्काईलाइन पर एक छोटा लड़का दिखाई दे रहा है। उसके हाथ में कोई बर्तन है जो सूरज की किरणों से चमक रहा है। शायद वो पानी या और कुछ खाने के लिए ला रहा हो।


बगल से गुजरते हुए ट्रैक्टर पर भोजपुरी गीत बज रहा है, बोल हैं-


ओढ़नी के रंग पिअर, जादू चला रहल बा...
लागता जइसे खेतवा में सरसों फुला रहल बा...


ट्रैक्टर अब दूसरी दिशा में मुड़ कर जा रहा है। पर मन गाना सुनने को लालायित हो रहा है, बाकी अंश सुनने को जी तरस रहा है। गाने के कुछ शब्द ट्रैक्टर की ककर्श आवाज तो कुछ ट्रैक्टर के दूर जाने से गुम होते जा रहे हैं। 


................................................भाग-11 

@सु जीत, बक्सर।


Wednesday 25 July 2018

हाँ, मैं दिल्ली में रहता हूँ!

हाँ, मैं दिल्ली में रहता हूँ।
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सिंगल रूम का कमरा हैं,
उसी में सब कुछ करना हैं,
रहना, खाना, पीना, सोना,
पांच हजार जिसका भरना हैं।

हाँ, मैं दिल्ली में रहता हूँ ।

बीबी को शहर घुमाया नहीं,
कोई मॉल-वॉल दिखाया नहीं,
बच्चे का एडमिशन कराया नहीं,
घर खर्च भी पूरा हुआ नहीं।

हाँ, मैं दिल्ली में रहता हूँ!

जब दोस्त कोई भी आता हैं,
फ़ोन करके बतियाता हैं,
कहता हैं अबे तू कहाँ हैं?
मिलता नहीं,रहता कहाँ हैं?

हाँ, मैं दिल्ली में रहता हूँ।

एक नौकरी के बाद दूसरी,
सोचता हूँ, कर लूँ  तीसरी,
घर खर्च बमुश्किल चलता हैं,
जैसे- तैसे दिन कटता हैं।

हाँ, मैं दिल्ली में रहता हूँ।

अभी महीना लगा नहीं,
मालिक आ धमकता हैं,
अब बकाया खत्म कर दो,
राशन वाला भी कहता हैं।

हाँ, मैं दिल्ली में रहता हूँ।

घरवाले भी आस लगाते हैं,
इस बार होली अच्छी होगी,
बेटा जब दिल्ली से आयेगा,
सबको कपड़ा सिलवायेगा।

हाँ, मैं दिल्ली में रहता हूँ।

              :- सु जीत पाण्डेय "छोटू"

Monday 14 May 2018

एक चर्चा :- बाबा नागार्जुन की

"वतन बेचकर पंडित नेहरू फुले नहीं समाते हैं,
बेशर्मी की हद हैं फिर भी बातें बड़ी बनाते हैं।"
जनकवि बाबा नागार्जुन का नाम भारत के वामपंथी कवियों में आता हैं। गरीबी, भूख, कुशासन, और भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्भीक होकर आवाज उठाने वाले आप कवि रहे हैं।
आपका जन्म 11 जून 1911ई. में  बिहार के  दरभंगा जिले के तरौनी गाँव में हुआ था। आपका बचपन का नाम " ठक्कर" था जबकि स्कूली नाम वैद्धनाथ मिश्र था । बाद में मैथिली कविताओं में आप "यात्री " नाम से प्रसिद्ध हुए। वैसे आपने खेल-खेल में ही लिखना शुरू किया था किंतु सन 1938 ई.  में आप " नागार्जुन " नाम से प्रसिद्ध हुए । आपकी पढ़ाई-लिखाई कुछ खास नहीं थी, बल्कि आपने जो कुछ भी पढ़ा अपनी जिंदगी से पढ़ा और अनुभवों से गढ़ा।
आप कहते हैं कि...मैं यायावर किस्म के आदमी हैं और..
"जिस आदमी को बहत्तर चूल्हे का खाना लगा हो वह एक घर में कहाँ टिक पाता हैं।"
आपकी कविताएं जनमानस में एक अद्भुत और बेमिसाल छाप छोड़ती हैं। आपकी कविता की दुनिया वैसी ही व्यापकता और विविधता से भरी हुई हैं जैसी व्यापकता और विविधता हमारे देश में हैं। प्रकृति के सौन्दर्यपारखी, घुमक्कड़ और मुख्यतः राजनीतिक कवि बाबा नागार्जुन की कविता एकदम सीधी चोट करती हैं उन निरंकुशता, सामाजिक कुव्यवस्था पर जहाँ खटकती हैं एक आवाज बनकर...
आपको घुमक्कड़ी की ललक पंडित राहुल सांकृत्यायन जी से मिली। आपकी कविता ही भारत के भोगौलिक क्षेत्र से चित परिचित कराती हैं तभी तो उतर में हिमालय से लेकर दक्षिण में केरल और पूरब में मिजोरम से लेकर पश्चिम में गुजरात तक के बारे में लिखने से नहीं चूके हैं।
सन 1939 ई. में आप स्वामी सहजानंद सरस्वती जी और सुभाष चंद बोस जी के साथ "किसान आंदोलन" में भाग लिए जिसमें आपको हजारीबाग जेल जाना पड़ा, पुनः सन 1941ई. में छपरा की  "किसान रैली" का नेतृत्व किया जिसमें पुनः आपको भागलपुर जेल जाना पड़ा ।
बाबा नागार्जुन चार भाषाओं में कविता लिखे हैं जो हैं हिंदी, मैथिली, संस्कृत और बांग्ला। वे अपने आप को खुद "औघड़ गोत्र"  का कवि बताते हैं।
सन 1961ई. में जब ब्रिटेन की महारानी भारत आई थी तब कविता का रूप देखर कटु आलोचना किये थे...
आओ रानी हम ढोएंगे पालकी....
राजनीतिक कविताओं में,
1. आओ रानी हम ढोएंगे पालकी
2. शासन की बंदूक
सौन्दर्यादित कविताओं में,
1. गुलाबी चूड़ियाँ
2.लच्छो की अम्मा
3.मेरी नवजात सखी
मौसमी कविताओं में,
1. वसंत की आगवानी
2. नीम की दो टहनियां
3. शरद पूर्णिमा
काव्य भाषा संबंधित अनेकरूपता में भाषा की बुनावट, शब्दों के संयोजन में उनकी नाम कवि तुलसीदास और निराला जी के साथ आता हैं।
नामवर सिंह ने लिखा हैं कि " नागार्जुन की गिनती न तो प्रयोगशील कवियों के संदर्भ में होती हैं और न नई कविता प्रसंग में,,,, फिर भी कविता के रूप सम्बन्धी जितने प्रयोग अकेले नागार्जुन ने किए हैं, उतने शायद किसी न किये हों!
बाकी बच गया अण्डा
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पाँच पूत भारतमाता के, दुश्मन था खूँखार
गोली खाकर एक मर गया, बाक़ी रह गए चार
चार पूत भारतमाता के, चारों चतुर-प्रवीन
देश-निकाला मिला एक को, बाक़ी रह गए तीन
तीन पूत भारतमाता के, लड़ने लग गए वो
अलग हो गया उधर एक, अब बाक़ी बच गए दो
दो बेटे भारतमाता के, छोड़ पुरानी टेक
चिपक गया है एक गद्दी से, बाक़ी बच गया एक
एक पूत भारतमाता का, कन्धे पर है झण्डा
पुलिस पकड कर जेल ले गई, बाकी बच गया अण्डा
रचनाकाल : 1950
अकाल और उसके बाद
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कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।
[ बाबा नागार्जुन को मैं पहली बार पढ़ा और मेरे लिए सबसे खास कवि बन गये। इस आलेख को मैंने चित्र में दर्शाये गए पुस्तक और कवि कुमार विश्वास जी की वीडियो से लिखा हैं, साभार इंटरनेट काका,......]

Sunday 6 May 2018

..इसीलिये अरेंज वाली नहीं टूटती हैं शादियां!!



इसीलिये अरेंज वाली नहीं टूटती हैं शादियाँ!!
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यूँ कहें तो हमारे यहाँ शादी हमारी लोकसमाज और संस्कृति की थाती हैं। यह एक ऐसी धरोहर हैं जिसका निर्वहन अगर इसकी संस्कृति से होकर की जाती हैं तो परमानंद की अनुभूति होती हैं, उस दूल्हे-दुल्हन की, घर वाले की, सगे-संबंधियों की और पूरे गाँव को भी।

दरअसल कहते हैं न!,.......
शादी एक ऐसा बंधन हैं जिसमें लड़का-लड़की एक दूसरे के सुख दुख में शरीक होने का प्रण लेते हैं।

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"लड़की का पक्ष सुयोग्य वर और लड़का पक्ष सुकन्या खोजने में जब हारथक जाता हैं तब उसे अपनी लालसा को संकुचित और संतुलित करना पड़ता हैं, तभी बियाह ठीक होता हैं।"

शादी में जहाँ दूल्हा पूरे गाँव का राजकुमार होता हैं तो वही दुल्हन पूरे गाँव की बेटी होती हैं। रोचक बात ये है कि उस गाँव के पुरे लड़के "साले" और लड़कियां "साली" मानी जाती हैं। अगर आदर सत्कार यथोचित नहीं होता हैं तो पूरे गाँव की बदनामी होती हैं। लोग कह देते हैं कि

"फ़ला गाँव में बारातियों का कदर नहीं होता हैं" ।

दरअसल, दुवारे बारात वाला सिस्टम उत्तरी कोरिया वाले किम जोंग के परमाणु परीक्षण से जरा भी कम नहीं होता। इसमें कितनी गाड़ी लाये हैं? हाथी घोड़ा हैं कि नहीं। बारातियों का वेशभूषा कैसा हैं? सबकुछ झलक जाता हैं। शादी का पहला इम्प्रेशन यही से शुरू होता हैं।
और शुरू हो जाता हैं..

"ओ जिमि जिमि आजा, वाला धुन ...."
論

जयमाल के समय दूल्हा तो राजा रहता ही हैं किंतु दूल्हे के साथ गया खुबसुन्दर छोटा बच्चा जो दूल्हे भी भाति सजाया जाता हैं, "सहबाला" कहा जाता हैं, का भाव सातवें आसमाँ पर रहता हैं।

अब आगे शादी रस्म आता हैं जो पंडीजी के प्रवचन से शुरू होता हैं और न जाने क्या क्या कसम, कहानी, कथा कहकर इतना समय लगा देते हैं कि ऐसा लगता हैं...

"सातों जन्म की शादी का रस्म इस जन्म ही करा देंगे।"

रात में जब खाना खाने का बारी आता हैं तब त अउर लीला मच जाता हैं। लड़का पहले खाता नहीं हैं, माड़ो
में खाना खाने का प्रबंध होता हैं सबको खाना परोसा जाता हैं लेकिन दूल्हा खाता नहीं हैं वो जाता हैं .........',"रूस"
रुसने वाली प्रथा सदियों से चली आ रही हैं। यह एक रस्म होता हैं जिसमें कुछ द्रव्य जैसे कि अँगूठी, घड़ी या कुछ पैसे दूल्हा को दे दिया जाता हैं।
अब शुरू हो जाता हैं गाली वाला टाइम। खाते हुए बारातियों को महिलाएं इतना गाली देती हैं कि पुड़ी से कम लेकिन गाली से ज्यादा पेट भर जाता हैं और इसे शुभ माना जाता हैं। कहते हैं कि गाली जितना ज्यादा सुनने को मिलता हैं रिश्ता उतना ही मजबूत होता हैं।

कोहबर में जाकर सालियों के बीच बैठ जाने से ऐसा प्रतीत होता हैं, जैसे जीवन का सबसे बड़ा संकट सर सवार होने में कुछेक समय रह गया हैं। इसमें जूता चुराई के रस्म से ही ससुराल पक्ष यह भली भांति समझ लेता हैं कि दूल्हे का व्यवहार कैसा हैं, मोल तौल कर पैसा निकलता हैं या गुस्सा कर खिसियाने वाला हैं।

सुबह का समधी मिलन पूरे कार्यक्रम में हुए भूल चुक मिटाकर गले लगने की प्रक्रिया हैं किंतु रात भर जगने के बाद सुबह में नाच, बाजा, तम्बू-सामियाना आदि का पैसा देना छाती फाड़कर कलेजा निकालने से जरा भी कम नहीं लगता।
अंत में समय आता हैं दुल्हन विदा होने का जिसमें दूल्हन जब घर वालों से अलग होती हैं तो रोती हैं बेटी की रुन्दन से उसकी माँ, बहन और सखियां भी रोती हैं।


हालांकि यह रोने वाला रस्म धीरे धीरे विलुप्त होते जा रही हैं।
तात्पर्य यह हैं कि शादी में वर और वधु दोनों पक्ष का इतना ज्यादा खर्चा होता हैं कि एक आम आदमी की जमापूंजी नील बट्टे सन्नाटा हो जाता हैं। दूसरी बात सामाजिक तौर पर भी गाँव, समाज शादी का प्रत्यक्षदर्शी होता हैं।

.....इसीलिये नहीं टूटती हैं शादियां!!
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सुजीत पाण्डेय छोटू
        बक्सर

Saturday 5 May 2018

Walled city (वाल्ड सिटी) क्या हैं??

दिल्ली में लगभग ग्यारह सौ चालीस दिन गुजारने के बाद भी यहाँ की वाल्ड सिटी के बारे में नहीं जान सका, आज सुबह सुबह मेरी नजर चावड़ी बाजार के एक साइन बोर्ड पर पड़ी, जिसपर लिखा था...

*" वाल्ड सिटी में आपका स्वागत हैं।"

ताज्जुब हुआ इतना दिन ये बोर्ड तो दिखा नहीं, आज कैसे दिख गया किन्तु वहाँ से गुजरते वक़्त या तो जल्दबाजी रहती हैं या इतनी भीड़भाड़ रहती हैं कि खुद को ऑटो रिक्शे, टेम्पू, और अन्य गाड़ियों से बीच बचते बचते निकलने की वजह से नहीं दिखा होगा।

दिल्ली के कुछ खास जगहों को वाल्ड सिटी के नाम से जाना जाता हैं। वाल्ड सिटी में मुख्यतः पुरानी दिल्ली के चांदनी और चावड़ी बाजार का एरिया आता हैं और इसका केंद्रीय बिंदु लाल किला हैं। लाल किला से निकलने वाले रास्ते मुख्य सड़क हैं। लाल किला के ठीक तीनों तरह का समानांतर रोड इसकी मुख्य सड़क थी। 

कहते हैं कि पुरानी दिल्ली को मुगल शासक शाहजहां ने सन सोलह सौ उनतालीस में बसाया था और इसे राजधानी बनाकर नाम दिया था "शाहजहाँबाद"....!


उस समय यह शाहजहाँबाद का एरिया पूरी तरह चाक चौबंद था और पूरी तरह से घेराबंदी कर 14 गेटों से सील्ड था। ये गेट रात के समय बंद कर दिए जाते थे और पहरेदार लगाए जाते थे । यह एरिया पंद्रह सौ एकड़ यानी लगभग 6.1 km  में बसा हुआ था। कुछ मुख्य गेट नीचे दिए गए हैं....

1. कश्मीरी गेट:- उत्तर दिशा

2. मोरी गेट। :- उत्तर दिशा

3. निगमबोध गेट:- उत्तरपूर्व दिशा

4. लाहौरी गेट:- पच्छिम दिशा

5. अजमेरी गेट:- दक्षिण पूर्व दिशा

6. तुर्कमानी गेट:-  दक्षिण पूर्व दिशा

7. दिल्ली गेट:-दक्षिण दिशा

8. काबुली गेट:- पश्चिम दिशा

9. खूनी दरवाजा:- इसका निर्माण शेरशाह सूरी ने कराया था ।

इन दरवाजों के चारों तरफ की ऊँचाई लगभग 26 फ़ीट की बनाईं गई थी, और मुख्य दरवाजे की ऊंचाई 26 फ़ीट थी,जो लाल पत्थर से बना हुआ था।

कहते हैं कि कश्मीरी गेट से होते हुए जो सड़क हैं वो कश्मीर को जाता था इसलिए ही इसका नाम कश्मीरी गेट पड़ा और निगमबोध का द्वार जो अब निगमबोध घाट हैं जहाँ अब दाह संस्कार किया जाता हैं।

इसका बहुधा भाग सन 1857 में हुए विद्रोह में तोड़कर गार्डन वैगेरह बना दिया गया। कुछ गेट अभी भी विरासत के रूप में टूटे-फूटे हैं। 


[वाल्ड सिटी को देखकर मन में इसके बारे में जानने की इच्छा हुई, उक्त सभी जानकारियाँ  गूगल बाबा से प्राप्त की गई हैं]


Thursday 3 May 2018

!! मेरी रूह !!

* मेरी रूह *
मेरी रूह बसती है उस दुवार पर,
जहाँ रोज सुबह के आठ बजे सुकुरती डेरा डालती है। और जब वो पूँछ हिलाते हुए पहुँचती है, तो माँ कहती है

"जा एगो रोटी दे दऽ, बेचारी भूखाइल होई"

मेरी रूह बसती है उस घर में,
जहाँ पेट भरने के बाद भी माँ जबरदस्ती अपने हाथों से ठूँस-ठूँस कर खाना खिलाते हुए कहतीीm है..

"खा ल, काहे काहे चिंताऽ करत बाड़ऽ!,  तहरा कमाई के आसरा नइखे"

मेरी रूह बसती है वहाँ,
जहाँ एक गइया है जो सुबह-सुबह खाने के लिए मकई की टाटी पर पूँछ पटकती है और लेट होने पर अलार्म के तौर पर रंभाती है।

मेरी रूह बसती है उस खलिहान में,
जहाँ हम बचपन में क्रिकेट और बॉलीबाल खेलते थे। इस दौरान खेल गेंद किसी के पाथे हुए गोबर में चले जाने से उसे कचटने पर गालियाँ सुनकर हँसते थे।

"तब ना तो कोई अदब था और ना ही कोई गुरुर"

मेरी रूह बसती है ब्रह्म बाबा स्थान में,
जहाँ मेरा बचपन घोड़ा बैठने, लट्टू, गोली, चीका, कबड्डी खेलने में गुज़रा। वहाँ जब बारिस होती, तो बेंग की आवाज सुनने के लिए टाइम निकाल लेते और फुरसत से कागज की नाव बनाते।

" पूरे गाँव का आस्था और भक्ति का केन्द्र है"

मेरी रूह बसती है उस आँगन में,
जहाँ होली के दिन पंकजवा भाँग खाके अपना भउजी पर रंग से जादा गोबर उड़ेलकर होली खेलता था।

"तब ना आपस में बैर था, न कोई आशंका"

मेरी रूह बसती हैं मेरे गाँव गोप भरौली,सिमरी,बक्सर में,
जहाँ कोई आलीशान बिल्डिंग नहीं हैं,
गुजर-बसर करने लायक कुछ कच्चे-पक्के-करकट-माटी के मकान, जिन तक अभी पक्की सड़क नहीं पहुँची है, सुना है वो कहीं रास्ते में हैं

" पर बसता वहाँ सुकून हैं"

            :-  सुजीत पाण्डेय छोटू

【विशेष आभार:-  Sri Krishna Jee Pandey】

Saturday 14 April 2018

सतुआ न ।🍒🍎

अभी स्कूल की छुट्टी भी नहीं हुई थी। एक घंटी बाकी था तब तक सोनुआ आकर बोला।

आज सतुआनी ह, ई साल ख़ालिये जाई का ।

हम क्लास में दूसरे बेंच पर बैठे हुए ही तिरछी आँखों से पीछे देख रहे थे। पीछे चल रही साज़िश किसी के नव कपोल आम तोड़ने की थी। वैसे शुरू से ही चोरी में कम लेकिन चोरी में तोड़े गए सामान को बटोरने में माहिर आदमी समझता था।

....अंसारी सर बोल पड़े...
   सुजीत कुमार पाण्डेय"

** पुनर्जागरण किसे कहते हैं?
मेरी तंद्रा खुली, फटाफट खड़ा हुआ। इतने देर में दूसरा सवाल जहाँ तक पूछते , बोल दिए

बेंच के ऊपर खड़ा अपनी शक्ल दिखाओ।
लजाते शर्माते हुए खड़ा हुआ और तब तक क्लास में ठहाके शिकार हुआ ।

क्या तुम क्लास में हो ?

Tuesday 10 April 2018

"कुछ यादगार लम्हें......की!!!

""कुछ यादगार लम्हें .........की!!!!""

मुझे अच्छी तरह से याद हैं!!..
जब मैं पहली बार तुमसे मिला था! वो दिन बजट-सत्र का आखिरी दिन था और मैं पहली बार दिल्ली की जमीं पर कदम रखा था।

ना दिल में चैन था और ना मन को सुकून! हर वक़्त याद कर कर के मन विचलित और रूह परेशान था।

भला याद करूँ भी क्यों नहीं?!!..
तुम मेरे रूह में इस कदर समा गई थी, हमबिस्तर बन के। तुम्हारी जरा सी भी आहत मुझे बेचैन कर देती थी और मैं खोजने लगता था विकल होके, और तुम कही छुप जाती थी और हाँ...!!
मिलती कहाँ थी, आसानी से ....

असल में तुम्हारा और मेरा खून का रिश्ता जो ठहरा।

तुम्हारे छोटे छोटे दाँतो की काटी हुई चुभन का तो मैं मुरीद हो गया था !!, जहाँ भी काटती,,,, वहाँ का दाग भी कितना भयानक होता और ऐसे दाग को लोगों से छुपाना पड़ता वरना मेरी खिल्ली उड़ जाती।

पता हैं एक बार घर जो गया था। तुम्हारे शातिर बदमाशी को देखकर घर वाले भी हैरान थे। लाल-लाल के चकते जो इतने खतरनाक दिख रहे थे। जो जख्म हरे थे वे दवा लगाने के बाद भी जल्दी से ठीक नहीं हुए।

ख़ैर अभी कुछ चैन हैं जबसे चारपाई बदली हुई हैं।

#""खटमल की याद में""#

Monday 9 April 2018

!! रूह संवाद!!

कहते हैं!!"
वक़्त गतिमान हैं।
यह अटल और शाश्वत हैं।
बदलता वक़्त घावों को तो भर सकता हैं पर,
उनका क्या जो जलते हैं बिन बाती के ज़रा-जरा-सा।

उमड़ पड़ते हैं ख्वाबों तले
मचल उठते हैं उन लहरों-सा
जो एक मिलन की आस में
उछल पड़ती हैं उन आसमाँ की ओर....
पर होता नहीं नसीब। फिर क्यों?

निकल पड़ते हैं अश्क़,
तोड़ सारे बाँधो का किनारा,
उम्मीद ही न बनता हैं सहारा,
क्या यही होने का अहसास हैं,

झुठलाती हैं वो कहकर...

"नहीं तो !!"

शायद ये गलतफहमी हैं तुम्हारी।

हाँ!! , मैं भी ठहरा एक जिद्दी,
न रुकने वाला,न थकने वाला,
वक़्त जख्मों को भर सकता हैं
पर ज़रूरी नहीं हर मर्ज की दवा ही हो।

कुछ मर्ज की दवा खुद खुदा बनाता।

"बोला:- .....
सुनो!!

दावाग्नि में जले उपवन में पत्ते पल्लवित हो सकते हैं पर
मुखाग्नि के स्वर से कभी अनुराग पैदा नहीं हो सकता।

Friday 6 April 2018

क्रिप्टो-करेंसी क्या हैं?

क्रिप्टो करेंसी एक आभासी मुद्रा हैं जिसे ऑनलाइन मुद्रा भी कहते हैं। जिस तरह से रुपये-पैसों को रखने के लिए हम जेब (पर्स) का इस्तेमाल करते हैं, ठीक इसी प्रकार से क्रिप्टो करेंसी रखने के लिए डिजिटल जेब की जरूरत पड़ती हैं।

प्राचीन समय में लोग मुद्राओं से अनजान थे। वे अपना काम वस्तु विनिमय प्रणाली के माध्यम से चलाते थे। इसका मतलब किसी जरूरत वाली वस्तु के बदले में किसी दूसरी वस्तु बदले में देनी पड़ती थी ।

विनिमय के तौर तरीकों में बदलाव हुआ। कालान्तर में  अलग-अलग राजवंशों ने अलग-अलग अपनी मुद्राएं जारी की। किसी ने सोने के सिक्के चलाये तो वही दूसरे किसी ने चांदी, फिर ताँबा आदि का.....

क्रिप्टोकरेंसी की शुरुआत 21 सदी मानी जाती हैं। क्रिप्टोकरेन्सी में बिटकॉइन को अर्थव्यवस्था का बादशाह माना जाता हैं। इसका आविष्कार 03 जनवरी 2009 में सतोषी नाकामोतो ने किया था जो अब तक अज्ञात हैं। इस व्यक्ति की पहचान अब तक नहीं हो पाई हैं । बिटकॉइन बनाने का असली मतलब था डिजिटल मुद्रा को बिना किसी तीसरे माध्यम के यानी बिना बैंक गए ही एक-दूसरे में पैसे का विनिमय हो सके ।

आज से ठीक पांच साल पहले
1 बिटकॉइन = 5 रुपये था जबकि अभी
1 बिटकॉइन= 50 हजार से भी ऊपर हैं।
( आंकड़े घटते-बढ़ते रहते हैं)

क्रिप्टोकरेंसी के दो प्रकार हैं।

1) फिएट क्रिप्टो
2) नॉन-फिएट क्रिप्टो

फिएट क्रिप्टो वैसी करेंसी हैं जिसे स्थानीय सरकार ( जैसे की भारत में भारतीय रिजर्व बैंक के द्वारा मान्यता दी जाती हैं) द्वारा वैध करार दी जाती हैं।

नॉन-फिएट क्रिप्टो करेंसी निजी करेंसी होती हैं। इसमें किसी सरकार हस्तक्षेप नहीं होता और अलग-अलग देशों में कही इसकी मान्यता मिलती हैं तो कही नहीं भी।

कुछ लोकप्रिय क्रिप्टोकरेंसियाँ हैं।
बिटकॉइन, एंथ्राल, रिप्पल आदि ।

क्रिप्टोकरेन्सी के फ़ायदे:-

1) यह उच्चतम सुरक्षा मानक  हैं और यह आपकी जानकारी को गुप्त रखता हैं।
2) इससे लेन देन में किसी तरह की फ्राडगिरी  नहीं होती।
3) लेन देन के लिए किसी बैंक या कोई और माध्यम नहीं बनता।
4) इसकी फीस काफी कम होती हैं।
5) इसका खाता घर बैठे खुल जाता हैं। कोई भागदौड़ या ज्यादा दस्तावेज की जरूरत नहीं होती ।

साभार:- इंटरनेट महोदय!!

Monday 19 March 2018

ललकी गमछी

#ललकी_गमछी
●●●●●●●●●●
ललकी गमछी बड़ी काम की
ख्याति इसकी गजब नाम की।
सर पे रखो तो ताज हैं,
समाज का मान-मरजाद है।
गले में रखो तो हार हैं,
भोजपुरिहा का उपहार हैं ।
बोझ सहने में सहायक हैं,
सुखद, सहज और लायक हैं ।
कमर में बाँधों कमरबंद बनती हैं
फुरती, साहस और जुनून भरती हैं ।
नहाने के बाद मुख्य जरूरत हैं,
सोचो इसकी कितनी अहमियत हैं ।
ज़ख्म को बाँधने में सहायक हैं,
बोझ बाँधने में भी एकदम लायक हैं ।
         
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sujit1992.blogspot.com

Friday 9 March 2018

एक यात्रा ऐसा भी ।

#एक_यात्रा_ऐसा_भी

आज निकला मैं स्टेशन के लिए
साथ में था दो बड़ा-बड़ा सा बैग
मेट्रो  से जाने  का नहीं  था मन
यूँही निकले रिक्शे के लिए हम ।

बार-बार रिक्शेवाले आते-जाते
पूछते,  चलना है  क्या स्टेशन ?
मैं भी पूछता जाने क्या लोगे?
चालीस पचास रुपये सुनकर!

मैंने बोला बीस रुपये लोगे क्या?
सब आते घूमते हुए निकल जाते
हुआ नहीं कोई राजी छोड़ एक
पचास साल के बूढ़े पुराने बाबा ।

हुआ मैं सवार उस रिक्शे पर
रास्ते में था ट्रैफिक घनघोर
बचते-बचाते धीरे-धीरे चलते
फिर रुकते,फिर चलते-रुकते ।

रास्ते में दूसरे गाड़ी वालों की
यदा-कदा बात भी सुनते हुए
पल भर में दिमाग अड़ गया
भई,ऐसी भी क्या जिंदगी है?

अवाक हुआ  इस सवारी से
पैर के जोर निरंतर देख कर
बूढ़े बाबा की पगड़ी सरकती
किसी तरह स्टेशन पहुँचाती।

याद किया अपना एक दिन
रोटी मुश्किल होती दो जून
जिंदगी लगी सच में जंग हैं
ट्रैफिक में दुर्घटना क्या कम हैं?

दिये निकाला  रुपये पचास
उनको नहीं थी इतनी आस
सन्तुष्ट हुआ पहले उतरकर
देख उनका मन टटोलकर ।

वास्तव में बहुत गरीब हैं हम और हमारा समाज ।

एक यात्रा ऐसा भी ।

#एक_यात्रा_ऐसा_भी

आज निकला मैं स्टेशन के लिए
साथ में था दो बड़ा-बड़ा सा बैग
मेट्रो  से जाने  का नहीं  था मन
यूँही निकले रिक्शे के लिए हम ।

बार-बार रिक्शेवाले आते-जाते
पूछते,  चलना है  क्या स्टेशन ?
मैं भी पूछता जाने क्या लोगे?
चालीस पचास रुपये सुनकर!

मैंने बोला बीस रुपये लोगे क्या?
सब आते घूमते हुए निकल जाते
हुआ नहीं कोई राजी छोड़ एक
पचास साल के बूढ़े पुराने बाबा ।

हुआ मैं सवार उस रिक्शे पर
रास्ते में था ट्रैफिक घनघोर
बचते-बचाते धीरे-धीरे चलते
फिर रुकते,फिर चलते-रुकते ।

रास्ते में दूसरे गाड़ी वालों की
यदा-कदा बात भी सुनते हुए
पल भर में दिमाग अड़ गया
भई,ऐसी भी क्या जिंदगी है?

अवाक हुआ  इस सवारी से
पैर के जोर निरंतर देख कर
बूढ़े बाबा की पगड़ी सरकती
किसी तरह स्टेशन पहुँचाती।

याद किया अपना एक दिन
रोटी मुश्किल होती दो जून
जिंदगी लगी सच में जंग हैं
ट्रैफिक में दुर्घटना क्या कम हैं?

दिये निकाला  रुपये पचास
उनको नहीं थी इतनी आस
सन्तुष्ट हुआ पहले उतरकर
देख उनका मन टटोलकर ।

वास्तव में बहुत गरीब हैं हम और हमारा समाज ।

Wednesday 7 March 2018

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस ।

मैं नारी हुँ!
मेरा कोई अस्तित्व नहीं ।

मैं जन्म की जननी हूँ,
पालन करती हुँ, पोषण करती हूँ,
भूखे तन को तृप्त करती हूँ तन से ।
रोते हुए बच्चे को गले लगाती हुँ,
सर सहलाती हुँ,आँचल का अम्बर बनाती हुँ
लोरिया सुनाती हुँ खुद जग-जगकर ।
मैं एक नारी हुँ!
मेरा कोई अस्तित्व नहीं ।
जिस घर में पैदा लेती हूँ,
बोझ बनती हुँ, बिन भविष्य के सुन,
सहती हुँ हर चिर-वियोग और ताने-बाने
आजाद नहीं इस खगोल पर
चौखट के अंदर सब सहती हुँ,
रीति-रिवाजों की कड़ियों से बंधी सुलगती
मैं एक नारी हुँ!
मेरा कोई अस्तित्व नहीं।
किसी ने मेरी अस्मिता लूटी
देख उसे किसी ने त्याग किया
पत्थर शिला को देख किसी ने उद्धार किया
बस यही मेरी कहानी है ।
अब देर नहीं, सबेर नहीं
तोड़ूंगी हर बंधन को मैं
नित नए रूप दिखाउँगी 
दैत्यों को सबक सिखाऊँगी
मैं नारी हुँ!
मेरा कोई अस्तित्व नहीं ।

Sunday 4 March 2018

दो राजधानियों की प्रेम कहानी ♥️👇👇

दो राजधानियों की प्रेम ♥️ कहानी
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यह कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है. क़िरदार की भूमिका कहानी से अगर कुछेक अंश भी मिलती हैं तो लेखक को बड़ी खुशी होगी ।

ख्वाबों की दुनिया में चलते हुए अगर कदमों की चाल हकीकत में तब्दील होने लगे। नींबू जैसा मन पपीता की तरह पीला और बड़ा होने लगे तो वही अहसास है प्यार का.... 

वक़्त नदी है, दोनों छोर क्रमशः किनारे का रूप हकीकत और ख़्वाब होते है। एक छोर से दूसरे छोर के बीच उम्मीदों का बांध बाँध तो सकते है पर टिकना संभव कहाँ?

दरअसल यह कहानी दो जीव, दो दिल, दो जिस्म या दो जिंदा दिली प्रेमी-प्रेमिका का ही नहीं है अपितु दो राजधानियों का मिलन है। दिल्ली हमारे देश की राजधानी हैं और लखनऊ भी यूपी की। आज यही दो राजधानियों के बेमेल दो दिलों की हाल-ए-दास्तां सुनाता हूँ ।
कहते है कि किसी प्यार किसी धर्म, सम्प्रदाय, बड़ा-छोटा,कृत-विकृत या गोरा-काला में विभेद नहीं करता, यह तो एक जादू है जो एहसासों के तवे पर पकना शुरू होता है और पकते-पकते किसी का उतर जाता है या किसी को जीवन भर पकाता है।
##

संगीत की दुनिया अजीब है दोस्तों। क्या खूब अपनी आवाज से दिल तक अपनी बातों को मनवाने लगता है, लोकतांत्रिक देशों में भी एक अलग सा साम्राज्य स्थापित करने के सपनें सजाने लगता है। जैसे कि मैं उसके दिल का राजा होता, वो हरपल मेरे बारे में सोचती रहती और मैं उसके। जब इश्क़ का सुरूर चढ़ता है तो सोचने का पैमाना लुल हो जाता है ।

याद करा दूँ, दिल्ली का इतिहास बहुत पुराना और दिलचस्प है । इसका उल्लेख महाभारत काल में हुआ है जब हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र ने पांड्वो को इसी के आसपास का क्षेत्र दिया था, तब वे इस नगर को बसाये थे और इन्द्रप्रस्थ नाम दिए थे।  कालान्तर में इसकी गरिमा दिल्ली सल्तनत के नाम हुई, परंतु यह अभिशाप रहा इसकी बागडोर बदलती रही। कहते है, यहाँ की भूमि रक्त से सिंचित है। सत्ता की लालच लिए लाखों लोगों की बलि बनी यह धरा.... हम तो दिल्ली को मिर्जा ग़ालिब के शहर  से जानते है। जो इस शहर को शायरी की दुनिया से रूबरू कराया, हर नौजवानों की जुबां इनकी अभी भी पकड़ है।

नदी का दूसरा छोर, लखनऊ भी अपने अतीत काल से ही विख्यात रहा है। प्राचीन कोसल राज्य, जो भगवान राम के अधीन था, को लक्ष्मण जी को समर्पित किये थे और लक्ष्मणपुर  से नाम बदलकर लखनऊ बना । यह नबाबों का शहर है, नवाब आसफ़ुद्दौला ने इसे समृद्ध किया। यह शहर  चिकन कढ़ी, और आम उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के मशहूर शायर मजाज लखनबी, मात्र 44 साल धरा पे रहकर अपने शायरी में जो अद्वितीय प्रसिद्धि पाई वो उल्लेखनीय है ।  कवि कुमार विश्वास जी कहते है कि इनकी लिखी किताब उस समय  एक दिन के लिये ही खास खास लोगो को मिलती थी, तब आज के जैसा युग नहीं था, वरन कॉपी पेस्ट मारकर घर-घर मे सैकड़ो प्रतियां होती ।

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अरे, हम असली कहानी तो भूल गये थे।
जैसा की ऊपर बताया दोनो शहर महाभारत और रामायण का हिस्सा रहा है, उसी तरह दोनों राजधानियों की प्रेम कहानी भी बिल्कुल माधुर्यता, सम्मोहक, और उत्कटपूर्ण है ।

रविआ की जिंदगी भी कुछ इसी कदर गुजर रही थी। नये सपनें थे, नई उमंगे थी और पहली बार असल प्यार की जिंदगी में जीने अहसास हुआ था। पिछले एक महीना से न तो खाना-पीना नीक लग रहा था और न ही नींद आ रहा था, बस मोबाइल में पता नहीं क्या क्या टिप-टॉप करते रहता । दिल्ली में रहकर यूपीएससी की तैयारी करने वाला रबी होली में घर आया। परिवार वाले बहुत खुश थे, गाँव के लड़के भी खुश थे कि होली खेलने वाला दोस्त घर आया है।  रबी की आधी रात तन्हाई में गुजर रहा था। मन की हिलोरें झोंके से चलती फिर एकाएक शांत हो जाती। होली के दिन वो घर में ही दुबके रहा और मोबाइल में ही लगा रहा। दादी को लग रहा था कि आज कल की डिजिटल इंडिया में पढ़ाई की वजह से मोबाइल पर ही पढ़ रहा होगा। मोबाइल की पढ़ाई में तल्लीन देखकर पूरे घर वाले आस लगाए है कि रबिया कोई अच्छा जॉब पकड़ेगा।
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रवि अपने कोचिंग का सबसे टॉपर लड़का है। हर सवाल को बखूबी सॉल्व कर देता, लूसेन्ट तो मुंहजबानी याद है। लेकिन इस बीच दो महीना के लिए आई पूर्णिमा की नजर रबि पर पड़ी, फिर क्या था । नजर की नजाकत ने ऐसा नजरिया बदला की नजरें बदल गई।
दो महीना दो दिन की तरह गुजरा, बीसवें दिन एक दूसरे की निगाहें नाज़िर हुई और सप्ताह में पाँच दिन का क्लास शनि, रवि की छुट्टी,गई तो गई, पर छीन गई सुनहले सपनें, आंख का सूकून, तन का चैन और एक पहाड़ सा दर्द का मंज़र..........
छोड़ गई वो पिंक हेयर क्लिप जो पीछे से दूसरे बेंच से  एक पराबैगनी किरणें निकलकर आ रही थी, जो सिर्फ उसे ही आकर दिखती और उसकी बात बात पर अवरोध करने वाली बीमारी ..असल में वो बीमारी नहीं थी, वही तो था सुकून देने वाला पल, कलेजे को ठंडक पहुँचाने वाली आवाज और नटखटी निराली अंदाज़ जिसे सुनकर ऐसा महसूस होता जैसे राजस्थान के मरुस्थल में बाढ़ आ गया है, मरुस्थल में मरे घास-पात, पेड़ पौधे अब जी गए है, ठूठ शिरीष और बबूल के पेड़ो में भी हरियाली आ गई हो!

वो बीता हुआ शुक्रवार का शूकर है जिंदगी भर याद रहेगी, उस मिरजई आंखें और वह अदा जिसका शिकार था रवि।  जब एक हल्की मुस्कान के साथ रास्ते से गुज़री और बोली...

Hi,,, ravi
How r u????
Meet me after class......

रवि के चेहरे से तो अवरक्त किरणें निकल रही थी, जो छन में सबको जलाकर प्यार की एक जिंदगी जीने का मजबूर कर रही थी। उसकी पिंक जूतियाँ, पिंक टीशर्ट और पिंक हेयर क्लिप जिसकी त्रिविमीय किरणों से बने केंद्र उसकी आँख थी, रेखा खण्ड को कितने डिग्री का कोण बना रही है, सोचने में डूब गया ।

क्लास खत्म होने के बाद मिनट भर के लिए भेंट हुआ । हाथों से हाथ इस तरह कस के पकड़ा जैसे कि इसकी छुअन जिंदगी भर भूले नहीं, फिर क्या था, कमीने दोस्तो ने आवाज लगा दी। रबी का मुंह पूरी तरह लाल हो चुका था। खरबूजे का पकना भला कौन नहीं पहचाने।  बस क्या था, उसी दिन से इश्क़ में गिरफ्तार हुआ,अब कैदी बना चुका था। हर सोच पूर्णिमा से ही शुरू और खत्म हो जाती । वो उसके जाने का दिन था पर कमीने दोस्तों की वजह से ठीक से नहीं मिल पाया था । 10 दिन बाद ट्विटर अकाउंट पर एक फॉलो आया, देखा तो लिखा था,
Purnima Sharma follow u.......
आगे के लिए थोड़ा इंतज़ार करें
मन का राही
गोप भरौली, बक्सर

Wednesday 28 February 2018

बसन्ती बयार ~ हैप्पी होली ♥️♥️

एक छोटा सा गाँव है।
गोप भरौली, सिमरी,बक्सर....जहाँ की आबादी है लगभग 1200, कुछ नए आने वाले मेहमानों को छोड़कर ... भले ही इस बार वेलेंटाइन-डे खूब मना है। कुछ नई शादियां भी हुई है, अनुमानों के आंकड़े  कुछ इधर-उधर हो सकते है। हाँ, ..इतना जरूर कहूँगा की इस बार की ठंडी में गाँव के बुजुर्गों का स्वास्थ्य अच्छा रहा, पूड़ी नहीं दिये...... ईश्वर करें! इसी तरह स्वस्थ, सुखी और परिवार का मार्गदर्शन करते रहें।
जैसा कि सर्वविदित है, हर किसी का बचपन पूरे जीवन रूपी कालखण्ड से प्यारा, अनोखा और खूबसूरत होता है। मेरा भी अच्छा चल रहा था। मुझे बचपन के हर किस्से हुबहू तो याद नहीं, पर कुछ ऐसे जो अभी तक दिल में दस्तक जमाये हुए है, अच्छी तरह से याद है .......
बंसन्त का महीना चल रहा था । शाम के समय में वातावरण में नमी था..ना ज्यादा गर्मी और ना ही ज्यादा सर्दी ...जैसा कि हर बंसन्त में होता है। अभी घंटे भर पहले रवि अस्त हुए थे... शशि अभी अपने क़ायनात से बाहर भी नहीं हुए थे। कहते है कि रवि और शशि एक साथ अपना प्रभाव नहीं दिखाते, लेकिन गांव में रवि और शशि की दोस्ती बेमिसाल थी,जहाँ निकलते साथ ही निकलते। हालाँकि की आजकल सुलभ घर घर बन जाने से लोगों का बाहर लोटा लेकर निकलने की प्रथा कम हुई है। नहीं तो पुरुब टोला से पछिम टोला गाँव के बाहर से ही सीटी संकेतक होता। जो पहले निकलता एक सीटी मार देता,मंद मंद पुरुआ हवा बह रही थी ।

हम अभी अपने पुराने वाले ही घर थे। जहाँ से आज भी बड़े बुजुर्गों, पड़ोस के भईया, चाचा-चाची, रंगीला काका, बटेशर जादो और दर्जनों भर लोगों के साथ बिताये सावन भादों की यादें जीवंत है। दुआर पर कुछ गेंदा, गुलाब, अड़हुल के पेड़ों से ख़ुशबू निकलकर वातावरण को सुवासित कर रहा था।

स्कूल से आने के बाद चुपके से 80 की रफ्तार में खरिहान में निकल पड़ते थे, खेल के आगे खाने-पीने की कोई सुध नहीं रहती थी। भले ही खेलकर आने के बाद घर वालों की डांट फटकार लगती रहे। खरिहान एक ऐसा जगह था, अभी भी है पर इसका क्षेत्रफल आधुनिक तकनीकी की मार की वजह से कम होते जा रहा है।  शाम को लड़को का क्रीड़ा केंद्र होता। गुल्ली डंडा, कबड्डी, घोंडा  बैठने वाला खेल आदि, तब आज के जैसा मोबाइल गेम नहीं था, आजकल मोबाइल से ही शारीरिक खेल रूप सभी क्रियाएं हो जाता है, अच्छी बात है । अगर उस समय जिओ का अनलिमिटेड प्लान चलता तो हमारे जैसे लोगों का हालात तो और भी  बद से भी बदतर हो जाता। क्यों सोशल मीडिया का ऐसा  भूत सवार है कि रात के सुबह 5 बजे से रात के 1 बजे तक अपने साये में दबाके रखता है ।

उस समय हमारे गुरु जी स्व श्री सीताराम पाण्डेय जी  साठ बरस उम्र रही होगी और हमलोग वही चौथी, पाँचवी के विद्यार्थी रहे होंगे। तकरीबन दो दशक गुजर जाने के बाद याददाश्त भी अब पहले जैसी नहीं रहीं। समय विकास का बहुत तरक्की किया है।  एक तरह आलू से सोना निकल रहा तो दूसरी तरह हेरा-फेरी नहीं हीरा-फेरी चल रही है । आज कल के विद्यार्थियों का यादाश्त एक दशक भी चल जाये तो कहना मुश्किल ही होगा ।

हर साँझ खेलकुद करने के बाद घर आकर घर वालों से  डाँट फटकार सुनना आदत में शुमार हो गया था। जैसे
1.ई लइका के पैर में शनिचर का बास हो गया है, एक छन भी घर में रहा नही जाता, जब भी टाइम मिलता है, भाग जाता है खलिहान में । ऐसा लगता है इसका चूरूकी वही गड़ा गाया है ।
2.घर के काम को काम नहीं समझता है जब देखो सोनुआ आ अंकितवा के साथ दुम दबा के निकल पड़ता है ।
3. रविवार के दिन छुट्टी होने से बाकी दिन की अपेक्षा डोज कुछ ज्यादा ही मिलता था, पर घर वालों को भी मालूम होता कि लड़का आ बानर में ज्यादा समझ नहीं होता, हॉ इतना जरूर होता कि कभी कभी दो चार झाप लगने के बाद गंगा जमुना की निर्मल धारा प्रवाहित हो जाती  और अगले कुछ घंटे में सब कुछ ठीक हो जाता, खैर"" आजकल के लड़के कुछ ज्यादा ही सीरियस में ले लेते है ।

स्कूल में जाते समय घर से दो तीन रुपये मिलता था जिसमें खर्च करने का मैनेजमेंट MBA के छात्रों से भी ज्यादा दिमाग खपाना पड़ता। 1 रुपये में चार मोटन चाकलेट लेकिन आदमी तो 6 है दाँत से काट कर वितरण करने वाली प्रथा हूबहू याद है और रास्ते मे पड़ने वाले जुताई हुए खेतों के ढेलों से बड़ा चट्टान बनाना, कुछ बिस्कुट और चॉकलेट के टुकड़ों को पंडुक बाबा(पक्षी) और चूहे भगवान या खाने से बरहम बाबा के नाम पर छुपा के रखने अगले सुबह आकर उसे उकेर कर देखना है। बिस्कुट या चाकलेट का टुकड़ा न पाकर भगवान के प्रति आस्तिकता के भाव मे शरधा से सर झुकाना आम बात थी ।

हाँ, मैं तो बसन्त वाली बात तो भूल ही चुका था। गुरु जी अपने स्वास्थ्य के प्रति बहुत अधिक सचेत थे। ठंड में भले आजकल हम गरम पानी पीकर फिटनेस और सेप बनाने, डाइजेशन ठीक करने और हार्ट अटैक से बचने में यूज करने लगे है पर वे उस समय गर्म पानी साथ लेकर चलते थे।

कल रविवार था इसलिए पूरा दिन घूमने-फिरने और शक्तिमान देखने व दोस्तो के साथ घूमने में निकल गया था । टास्क में  गुरु जी ने 20 तक पहाड़ा याद करने के लिए दिए थे, पर मेरी पहाड़ा रूपी गाड़ी की रफ्तार पाँचवे पायदान तक जाकर खड़ी हो जाती, 17, 18 और 19 ये तीनों महाकवि  कालिदास जी के महाकाव्य अभिज्ञानशाकुन्तलम और आचार्य द्विवेदी जी के हिंदी साहित्य काल से भी भारी था।

गुरु जी मेरी दिमाग रूपी गाड़ी में पेट्रोल डालते डालते थक
चुके थे, यदाकदा एक दो छड़ी गुस्से में लगा भी देते पर इसकी ग्लानि उन्हें ही होती,  इसका कोई खास फायदा न पाकर एक नई तरकीब निकाल दिए ।

ये एक शर्त थी ।
शर्त ये थी कि फागुन का महीना चल रहा है और उस समय शादी का लगन बहुत ज्यादा था। वे बोले, मैंने तुम्हारे लिए एक ख़ूबसुनदर लड़की भी ढूंढ़ रखी है। उसके मम्मी-पापा भी शादी के लिए लड़का खोज रहे है लेकिन उनका कहना है कि जो लड़का 20 तक पहाड़ा याद कर लेगा उसी से अपनी लड़की का शादी करेंगे। शर्त मेरे दिमाग में एक घर कर गया और दिमाग में एक नई दुनिया जीने के लिए प्रेरित कर रहा था। बचपन की बचपना में दूल्हे के साथ छोटा लड़का (सहबाला ) का भी तेवर सातवें आसमान पर रहता है ।

अन्त में मैंने 20 तक पहाड़ा तो याद कर लिया पर, चूक हो गया, खाली पड़ गई मेरे सपने की अहसास, एक ऐसा बंसन्त जिसे मैंने 15 साल पहले सपनों की दुनिया मे सजाया करता था। असली गुरु वही होता है जो बच्चों की बचपना समझता है।

खैर,  गुरु जी नहीं रहे!  इसका बहुत पछतावा है। इस बार की होली मैं अपने स्व गुरु जी को समर्पित करता हूँ। वे जहाँ भी हों, जिस रूप में भी हों, हमारी शुभकामना उन तक पहुँचे । एक और खेद है इस होली मैं अपने घर भी नहीं रह पा रहा हुँ, ग्लानि तो है। आप सभी मित्रों को होली की हार्दिक शुभकामना।
रंग भरे इस होली में जम के ख़ुशी मनायें
दुश्मनी   को छोड़  सबको   गले  लगायें ।
कुछ रंग लगाएं और कुछ गुलाल  लगायें
अपना छोड़ औरों के घर का फुआ खायें।।
HAPPY HOLI ♥️✍️ SE .............

सुजीत पाण्डेय छोटू
गोप भरौली, सिमरी, बक्सर ।।