कहते हैं!!"
वक़्त गतिमान हैं।
यह अटल और शाश्वत हैं।
बदलता वक़्त घावों को तो भर सकता हैं पर,
उनका क्या जो जलते हैं बिन बाती के ज़रा-जरा-सा।
उमड़ पड़ते हैं ख्वाबों तले
मचल उठते हैं उन लहरों-सा
जो एक मिलन की आस में
उछल पड़ती हैं उन आसमाँ की ओर....
पर होता नहीं नसीब। फिर क्यों?
निकल पड़ते हैं अश्क़,
तोड़ सारे बाँधो का किनारा,
उम्मीद ही न बनता हैं सहारा,
क्या यही होने का अहसास हैं,
झुठलाती हैं वो कहकर...
"नहीं तो !!"
शायद ये गलतफहमी हैं तुम्हारी।
हाँ!! , मैं भी ठहरा एक जिद्दी,
न रुकने वाला,न थकने वाला,
वक़्त जख्मों को भर सकता हैं
पर ज़रूरी नहीं हर मर्ज की दवा ही हो।
कुछ मर्ज की दवा खुद खुदा बनाता।
"बोला:- .....
सुनो!!
दावाग्नि में जले उपवन में पत्ते पल्लवित हो सकते हैं पर
मुखाग्नि के स्वर से कभी अनुराग पैदा नहीं हो सकता।
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