Thursday 20 September 2018

माँ की ममता

आज दूसरा दिन था.. मां बेहद आहत थी और उसे ऐसा लग रहा था कि बच्चा आँख खोल देगा...

गाड़ियों को आना-जाना लगा हुआ था. बगल के पुल पर और भी बहुत से बंदर देख रहे थे, उनकी आँखे भी गीली थी और मन में एक ही पच्छताप हो रहा था. हम क्यों बच्चे को लेकर इस रास्ते से गुजरे.

माँ अपने बेटे को जोर-जोर से झकझोरती और पुनः उठाने के लिये उसकी आँखें खोलती पर आँखे तो सदा के लिए बंद हो चुकी थी. कभी उसे दुलारती कभी पुचकारती तो कभी-कभी केले के टुकड़े को उसके मुँह तक ले जाती पर नहीं खाने पर गले लगाती और ऐसा लग रहा था कि वो  पूछना चाहती हैं " क्यों नहीं खा रहे हो?. कभी उसके बालों में से जुयें को निकालती और उसे खा लेती..

आने जाने वाले वे लोग जो पैदल या साइकिल से गुजरते और कुछ मिनट के लिए ऐसी घटना को देखकर भावुक हो जाते और यहाँ तक कि किसी- किसी के आँखों से आँसू भी निकल आते और उन्हें याद आती " माँ की ममता...

बीस घंटे गुजर चुके थे.और बंदरिया अपने बच्चे से बिल्कुल अलग नहीं हो रही थी. न उसे खाना की फिकर थी और न प्यास लग रही थी, बस उसे अपने बच्चे को काल के गाल से खींचने की आस लगी थी. शायद उस समय उसे खुद का भी प्राण त्यागने में भी कोई ग्लानि महसूस नहीं होती!

अन्त में देखा गया कि बंदरों की झुंड से एक बूढ़ा बंदर  निकला, ऐसा लग रहा था वो उनलोगों का शायद मुखिया हो और एक दो उसके सम उम्र बंदर उसके पास गये और कुछ देर वहाँ बैठकर कुछ आपस मे बात करने लगे. शायद वो जीवन-मृत्यु के रहस्य और सहानुभूति प्रकट करा रहे थे.

दस मिनट बाद अब धीरे धीरे बाकी बन्दर भी इकठ्ठा होने लगे और उस बनदरिया को साथ लेकर चले गए. जाने के क्रम में बंदरिया बार बार पीछे मुड़कर देखती पर असहाय  हो पैर आगे बढ़ा लेती..

{ कृपया सड़क पर चलते समय ध्यान रखें, मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षियों के भी परिवार होते हैं। सुख- दुःख की अनुभूति उन्हें भी होती हैं}

@सुजीत, बक्सर.

Friday 7 September 2018

बरसात

कड़कड़ाती हुई बिजलीं की गर्जना पुरूब टोला से होते हुए दखिन की तरफ़ निकल गई और ऐसा लगा कि सीधे कपार पर ही गिरेगी.करेजा एकदम से धकधका गया, कांप गया पूरी तरह से, ऐसा लगा कि जीवन लीला ही समाप्त हो जायेगी.


 बगल में बैठे 'शेरुआ', जो गाय की चट्टी पर गहरी नींद में सो रहा था, लुत्ती के रफ्तार से कान और पूँछ दुनो पटकते हुए खड़ा होकर इधर उधर  भागने लगा।

सच में जब जब बरसात आती हैं न 'कभी खुशी कभी गम' वाला एहसास दिलाती हैं. इतना जोर जोर से बारिस होके एकदम से कीच कीच कर देता हैं. अभी कल ही रिंटुआ का पैर छटकने से कुल्हा मुछक गया, डुमराँव जाकर दिखाया गया, पूरे सात सौ रुपया लगा हैं.



जब तेज बारिश होने लगती हैं न तो छत से टप टप पानी चुकर पुरा घर पानी पानी कर देता हैं, छत से चुने वाला पानी के लिए दो बाल्टी और एक जग स्पेशल रखा जाता हैं और इसके लिए घर का सबसे छोटा लड़का डिटेल किया जाता हैं, जो बार बार पानी बाहर आँगन में या चापाकल तक फेंकता हैं और इसका मेहनताना पाँच रुपये वाला 'छोटा भीम" के लिए दिया जाता हैं..


बारिस इतना जोरदार हो रही हैं कि गड़हा नाला नाली सब  भर गया हैं और तरह तरह के बेंग( मेढ़क) का जुटान हो गया हैं. लगता हैं कि रातभर इनका टर्र टर्र की बारात लगती रहेगी.


आसमान तो साफ हैं, बादल की घटा भी नहीं दिख रही हैं, आज जोलहा भी खूब उड़ रहा हैं..पक्षियों का झुंड भी आसमान में ऐसे कौतूहल कर रहा हैं जैसे कोई बड़ी ख़ुशी मिल गई हैं लेकिन इन सबसे इतर चार-पांच कौआ शिरीष के दंडल पर बैठें शोक सभा कर रहे हैं, देखकर ऐसा लगता हैं कि इन लोगों का आशियाना  उजड़ गया हैं।


नेवला का झुंड बगीचे से बाहर आकर अठखेली कर रहे हैं, शायद इनका भेंट साँप से नहीं हुआ हैं। पिछले साल की ही तो बात हैं., करियठ बड़का साँप और नेवले की लड़ाई आधा घंटा होते रह गई थी और अंत में सांप को हार मानना पड़ गया था..


सांझ का टाइम होने वाला हैं. मच्छड़ ऐसा लग रहे हैं कि आकाश में उड़ा ले जायेगे. भइसी के इंहा धुंआ करने का गोइठा भी भींज गया हैं. जो सियार सालों भर दिखते नहीं थे, एक दलानी के कोना में सुकुड़ कर बैठा हैं..

इस साल तो और दुलम हो गया, जो गाय/भैंस के रहने के लिए जो छावन करकट अभी पिछले साल खरीदा था, आँधि-पानी आने से बीचे से टूट गया हैं. ऐसा लगता हैं कि भगवान भी गरीबों को ही सताते हैं.


अरे, लड़का लोग खड़ा होके क्या देख रहा हैं.
ओ... लगता हैं कि किसी का मोटरसाइकिल फसा गया हैं करियठ माटी में. अब त उसका निकलना मुश्किलें हैं साँझ तक. आकाश में धनुषाकार इंद्रधनुष अपना सातों रंग बिखेर रहा हैं तो उसके बगल से 'गूंगी जहाज' गुजरते ऐसे दिख रही हैं जैसे कोई बगुला हो.


उधर पता लगा हैं कि गंगा जी भी बान्ह तक आ गई हैं.
लोग पूनी कमाने के लिए रोज  गंगा स्नान करने जा रहे हैं पर इन्हें पता नहीं कि पान साल पहिले इसी नदी में रमेशसर काका का गोड़ फिसल गया था और डूब गए थे.


लग रहा हैं कि  हथिया नक्षतर इस बार कबार के बरसेगी, काश! सोनवा भी खूब बरसता।, ताकि गिरहतो का अनाज साल भर खाने के लिये हो जाता और कुछ घर चलाने के लिए, ताकि आत्महत्या नहीं करना पड़ता.

खरिहानी में कुछ लोगों का समूह अर्धगोलार्द्ध रूप लेकर इन बरसात से इतर किसी राजनीतिक चर्चा पर अपना प्रसंग बांध रहा हैं. कोई अपने अनुभव को सर्वोच्च मनाने पर तुला हुआ हैं तो कोई उसे डाँट कर अपना ज्ञान बघार रहा हैं.  जिसे महज ये पता नहीं कि हमारे सूबे में लो.स. या विधान. सभा. की कितनी सीटे हैं वो भी अपना झंडा गाड़ने पर अडिग हैं. इसबार तो बीजेपी ही जीतेंगी....