Wednesday 28 February 2018

बसन्ती बयार ~ हैप्पी होली ♥️♥️

एक छोटा सा गाँव है।
गोप भरौली, सिमरी,बक्सर....जहाँ की आबादी है लगभग 1200, कुछ नए आने वाले मेहमानों को छोड़कर ... भले ही इस बार वेलेंटाइन-डे खूब मना है। कुछ नई शादियां भी हुई है, अनुमानों के आंकड़े  कुछ इधर-उधर हो सकते है। हाँ, ..इतना जरूर कहूँगा की इस बार की ठंडी में गाँव के बुजुर्गों का स्वास्थ्य अच्छा रहा, पूड़ी नहीं दिये...... ईश्वर करें! इसी तरह स्वस्थ, सुखी और परिवार का मार्गदर्शन करते रहें।
जैसा कि सर्वविदित है, हर किसी का बचपन पूरे जीवन रूपी कालखण्ड से प्यारा, अनोखा और खूबसूरत होता है। मेरा भी अच्छा चल रहा था। मुझे बचपन के हर किस्से हुबहू तो याद नहीं, पर कुछ ऐसे जो अभी तक दिल में दस्तक जमाये हुए है, अच्छी तरह से याद है .......
बंसन्त का महीना चल रहा था । शाम के समय में वातावरण में नमी था..ना ज्यादा गर्मी और ना ही ज्यादा सर्दी ...जैसा कि हर बंसन्त में होता है। अभी घंटे भर पहले रवि अस्त हुए थे... शशि अभी अपने क़ायनात से बाहर भी नहीं हुए थे। कहते है कि रवि और शशि एक साथ अपना प्रभाव नहीं दिखाते, लेकिन गांव में रवि और शशि की दोस्ती बेमिसाल थी,जहाँ निकलते साथ ही निकलते। हालाँकि की आजकल सुलभ घर घर बन जाने से लोगों का बाहर लोटा लेकर निकलने की प्रथा कम हुई है। नहीं तो पुरुब टोला से पछिम टोला गाँव के बाहर से ही सीटी संकेतक होता। जो पहले निकलता एक सीटी मार देता,मंद मंद पुरुआ हवा बह रही थी ।

हम अभी अपने पुराने वाले ही घर थे। जहाँ से आज भी बड़े बुजुर्गों, पड़ोस के भईया, चाचा-चाची, रंगीला काका, बटेशर जादो और दर्जनों भर लोगों के साथ बिताये सावन भादों की यादें जीवंत है। दुआर पर कुछ गेंदा, गुलाब, अड़हुल के पेड़ों से ख़ुशबू निकलकर वातावरण को सुवासित कर रहा था।

स्कूल से आने के बाद चुपके से 80 की रफ्तार में खरिहान में निकल पड़ते थे, खेल के आगे खाने-पीने की कोई सुध नहीं रहती थी। भले ही खेलकर आने के बाद घर वालों की डांट फटकार लगती रहे। खरिहान एक ऐसा जगह था, अभी भी है पर इसका क्षेत्रफल आधुनिक तकनीकी की मार की वजह से कम होते जा रहा है।  शाम को लड़को का क्रीड़ा केंद्र होता। गुल्ली डंडा, कबड्डी, घोंडा  बैठने वाला खेल आदि, तब आज के जैसा मोबाइल गेम नहीं था, आजकल मोबाइल से ही शारीरिक खेल रूप सभी क्रियाएं हो जाता है, अच्छी बात है । अगर उस समय जिओ का अनलिमिटेड प्लान चलता तो हमारे जैसे लोगों का हालात तो और भी  बद से भी बदतर हो जाता। क्यों सोशल मीडिया का ऐसा  भूत सवार है कि रात के सुबह 5 बजे से रात के 1 बजे तक अपने साये में दबाके रखता है ।

उस समय हमारे गुरु जी स्व श्री सीताराम पाण्डेय जी  साठ बरस उम्र रही होगी और हमलोग वही चौथी, पाँचवी के विद्यार्थी रहे होंगे। तकरीबन दो दशक गुजर जाने के बाद याददाश्त भी अब पहले जैसी नहीं रहीं। समय विकास का बहुत तरक्की किया है।  एक तरह आलू से सोना निकल रहा तो दूसरी तरह हेरा-फेरी नहीं हीरा-फेरी चल रही है । आज कल के विद्यार्थियों का यादाश्त एक दशक भी चल जाये तो कहना मुश्किल ही होगा ।

हर साँझ खेलकुद करने के बाद घर आकर घर वालों से  डाँट फटकार सुनना आदत में शुमार हो गया था। जैसे
1.ई लइका के पैर में शनिचर का बास हो गया है, एक छन भी घर में रहा नही जाता, जब भी टाइम मिलता है, भाग जाता है खलिहान में । ऐसा लगता है इसका चूरूकी वही गड़ा गाया है ।
2.घर के काम को काम नहीं समझता है जब देखो सोनुआ आ अंकितवा के साथ दुम दबा के निकल पड़ता है ।
3. रविवार के दिन छुट्टी होने से बाकी दिन की अपेक्षा डोज कुछ ज्यादा ही मिलता था, पर घर वालों को भी मालूम होता कि लड़का आ बानर में ज्यादा समझ नहीं होता, हॉ इतना जरूर होता कि कभी कभी दो चार झाप लगने के बाद गंगा जमुना की निर्मल धारा प्रवाहित हो जाती  और अगले कुछ घंटे में सब कुछ ठीक हो जाता, खैर"" आजकल के लड़के कुछ ज्यादा ही सीरियस में ले लेते है ।

स्कूल में जाते समय घर से दो तीन रुपये मिलता था जिसमें खर्च करने का मैनेजमेंट MBA के छात्रों से भी ज्यादा दिमाग खपाना पड़ता। 1 रुपये में चार मोटन चाकलेट लेकिन आदमी तो 6 है दाँत से काट कर वितरण करने वाली प्रथा हूबहू याद है और रास्ते मे पड़ने वाले जुताई हुए खेतों के ढेलों से बड़ा चट्टान बनाना, कुछ बिस्कुट और चॉकलेट के टुकड़ों को पंडुक बाबा(पक्षी) और चूहे भगवान या खाने से बरहम बाबा के नाम पर छुपा के रखने अगले सुबह आकर उसे उकेर कर देखना है। बिस्कुट या चाकलेट का टुकड़ा न पाकर भगवान के प्रति आस्तिकता के भाव मे शरधा से सर झुकाना आम बात थी ।

हाँ, मैं तो बसन्त वाली बात तो भूल ही चुका था। गुरु जी अपने स्वास्थ्य के प्रति बहुत अधिक सचेत थे। ठंड में भले आजकल हम गरम पानी पीकर फिटनेस और सेप बनाने, डाइजेशन ठीक करने और हार्ट अटैक से बचने में यूज करने लगे है पर वे उस समय गर्म पानी साथ लेकर चलते थे।

कल रविवार था इसलिए पूरा दिन घूमने-फिरने और शक्तिमान देखने व दोस्तो के साथ घूमने में निकल गया था । टास्क में  गुरु जी ने 20 तक पहाड़ा याद करने के लिए दिए थे, पर मेरी पहाड़ा रूपी गाड़ी की रफ्तार पाँचवे पायदान तक जाकर खड़ी हो जाती, 17, 18 और 19 ये तीनों महाकवि  कालिदास जी के महाकाव्य अभिज्ञानशाकुन्तलम और आचार्य द्विवेदी जी के हिंदी साहित्य काल से भी भारी था।

गुरु जी मेरी दिमाग रूपी गाड़ी में पेट्रोल डालते डालते थक
चुके थे, यदाकदा एक दो छड़ी गुस्से में लगा भी देते पर इसकी ग्लानि उन्हें ही होती,  इसका कोई खास फायदा न पाकर एक नई तरकीब निकाल दिए ।

ये एक शर्त थी ।
शर्त ये थी कि फागुन का महीना चल रहा है और उस समय शादी का लगन बहुत ज्यादा था। वे बोले, मैंने तुम्हारे लिए एक ख़ूबसुनदर लड़की भी ढूंढ़ रखी है। उसके मम्मी-पापा भी शादी के लिए लड़का खोज रहे है लेकिन उनका कहना है कि जो लड़का 20 तक पहाड़ा याद कर लेगा उसी से अपनी लड़की का शादी करेंगे। शर्त मेरे दिमाग में एक घर कर गया और दिमाग में एक नई दुनिया जीने के लिए प्रेरित कर रहा था। बचपन की बचपना में दूल्हे के साथ छोटा लड़का (सहबाला ) का भी तेवर सातवें आसमान पर रहता है ।

अन्त में मैंने 20 तक पहाड़ा तो याद कर लिया पर, चूक हो गया, खाली पड़ गई मेरे सपने की अहसास, एक ऐसा बंसन्त जिसे मैंने 15 साल पहले सपनों की दुनिया मे सजाया करता था। असली गुरु वही होता है जो बच्चों की बचपना समझता है।

खैर,  गुरु जी नहीं रहे!  इसका बहुत पछतावा है। इस बार की होली मैं अपने स्व गुरु जी को समर्पित करता हूँ। वे जहाँ भी हों, जिस रूप में भी हों, हमारी शुभकामना उन तक पहुँचे । एक और खेद है इस होली मैं अपने घर भी नहीं रह पा रहा हुँ, ग्लानि तो है। आप सभी मित्रों को होली की हार्दिक शुभकामना।
रंग भरे इस होली में जम के ख़ुशी मनायें
दुश्मनी   को छोड़  सबको   गले  लगायें ।
कुछ रंग लगाएं और कुछ गुलाल  लगायें
अपना छोड़ औरों के घर का फुआ खायें।।
HAPPY HOLI ♥️✍️ SE .............

सुजीत पाण्डेय छोटू
गोप भरौली, सिमरी, बक्सर ।।


Wednesday 7 February 2018

अल्फाज़

वक़्त के पन्ने पलटे तो अचानक ख्याल आया
खुद से कभी पूछा ही नहीं तुम गुजर कैसे गई ?

बहुत देर लगी खुद को समेटते समेटते
यादों की रेत हवा में ठहर कैसे गई ?

तन्हाइयों के कफन में बंधा है ये जिस्म
मैं तो मिट्टी नही थीं, बिखर कैसे गई ?

हर पल कतरा कतरा मारा था जिसे उम्र भर
अपनी वो लाश पहचानने से आज मुकर कैसे गई ?

बेदम बेजान आरजूओं के जनाजे देखे थे कई
अपनी ही कब्र देखी तो सिहर कैसे गई ?

खुद से कभी पूछा ही नहीं तुम गुजर कैसे गई ??

-----    पूर्वा अग्रवाल