Sunday 21 January 2018

जब जग ने सुनी वीणा की वाणी🎻🎻

ब्रम्हा जी ने हमें PK बना कर भेजा था। मानव पशुवत्व की तरह विचरण कर रहा था । जगत की रचना तो कर दी लेकिन जब पृथ्वी पर वीरान जंगल-जंगल, पहाड़ी-पहाड़ी, नदियों के तीरे तीरे जानवरों की भांति हमें भटकते हुए देखे तो सृष्टि की रचना नाकाम लग रही थी । तब उन्होंने अपना कमंडल से जल निकला और छिड़का तो माँ सरस्वती का प्रकट हुईं।
आप सभी जानते है कि वीणा माँ शारदा के हाथ मे सदैव रहता है और वीणा और वाणी में केवल दीर्घ इ की मात्रा का फेरबदल है । माता ने वीणा से स्वछंद और मधुर ध्वनि निकाली, पुरे देखने वाले हतप्रभ थे, अवाक रह गए और ऊँगली से तारों पर रगड़ने से निकल रही ध्वनि को सुनकर मन ही मन प्रसन्न हुए और माँ ने  श्रीमुख से स्वर निकाला । इसी का प्रतिफल लोगों पर पड़ा और लोगों का पशुवत्व से मानवत्व जीवन में तब्दील हुआ, जय माँ शारदा 
प्रोफेसर साहब पूरे गाँव में फूलों के शौखिन आदमी है । बगीचे में पूरा दिन खुरपी लेकर लगे रहते है। चम्पा, चमेली, तरह तरह के गुलाब, गेंदा, गेंदी, गुलदाउदी, कामिनी, अड़हुल आदि के फूल बोए है।  यू बात करें तो दुनिया का शायद ही कोई फूल होगा जो उनके बगीचे में नहीं मिलेगा । बक्सर नर्सरी का हर फूल उनके बगीचे में मौजूद है।
लेकिन गाँव में उन उदण्ड लड़को की भी कमी नही हैं, करीमन, सोहना और चिन्टूआ ताक में रहते है जब टाइम मिले फूल तोड़ लेते । दिन में पोरफेसर साहब लड़को से परेशान रहते है तो आधी रात में गाँव औरतों से । इसमें कोई शक नहीं कि नौरात्री में नौ दिन रात्रि जागरण पोरफेसर साहब को करना पड़ता है। औरतें  बारह एक बजे रात में ही अपना काम कर लेती । सुबह होता वही तमाशा 
लेकिन इस बार सरस्वती पूजा में पोरफेसर साहब ने अपना आशियाना बगीचे में ही बना रखा है पर उनकी पत्नी हीरा है । गाँव के हर सुख दुख में शरीक रहती है और अभी हमें तो फूल की जरूरत है । फूल की फरमाइश पहले ही पुरुब टोला से चिन्टूआ आ मै पहले ही चाची से कर दिया था।
फोर जी के जुग में भी शाम को गाँव के लोगों का बैठकी का मुख्य केंद्र उनका दुआर है । पुरुब टोला से महेंदर जादो, कमेशर और बीरेंदर और दखिन टोला के शशिकात, भीमकाका भी आ जाते है और पौने नौ बजे के समाचार चाय की घुट के साथ सुनते है पर परसो से पता नहीं किरपवा क्यों पहुँच रहा है ।
पोरफेसर साहब को इस बात का डाउट जरूर है कि गाँव में इस साल चार जगह सरस्वती पूजा रखा जा रहा है और कही न कही लड़के बागीचे के तरफ अपना रुख करेंगे । चाची ने पोरफेसर साहब को समझाया पर वे अपनी जिद पर अड़े रहे। किरपावा को पोरफेसर साहव के हर गतिविधि को भांपने के लिए पुरुब टोला से छोड़ा गया है, सरसोती पूजा के तीन दिन फूल का जुगाड़ हो जाए।
इस बार गाँव में दो जगह डीजे आया है और खुशी की बात है कि बसंत ऋतु का आगमन आज से ही होने वाला है । ऋतुओ में बसन्त सबसे प्रिय हर आदमी को लगता है और भगवान श्रीकृष्ण को भी । फूलों के बगीचों से निकल रही खुशबू वातावरण को सुहासित और आनंदित कर देती है तो दुसरी तरफ कोयल की कुक की ध्वनि कानों में पड़ती है तो गणेशवा का लीला देखते बनता है ।
कोयल कु बोलती है तो वो भी कु बोलता है ।
फिर दुबारा कु बोलती है वो भी पुनः बोलता है इस प्रतिस्पर्धा में दोनों अपने अपने जिद पर अड़े रहते है कि मै चुप नहीं रहूंगी तो गणेशवा भी । क्या गजब का समन्वय है एक दूसरे की ....
वर दे वीणा, वादिनी वर दे
हमें भी कुछ लिखने का श्रय दे । 
आप सभी दोस्तों को बसंत पञ्चमी, सरस्वती पूजा की हार्दिक बधाई ।

Sunday 14 January 2018

काश गर मैं बेटा होती !

काश गर मैं बेटा होती!

माँ के सर  बोझ ना होती
पापा का सरदर्द ना होती
चैन- सुकुन से रह सकती
ये दुनिया ताने ना दे पाती।।
काश गर मैं बेटा होती !
मेरी माँ को ना झुकना पड़ता
डरके समाज में ना जीना होता
उन्मुक्त,आजाद परिंदे सी मैं भी
हर चाहत को पूरा कर पाती ।।
काश गर मैं बेटा होती!
कोई चाल चले या जाल बुने
ये साजिश भी ना सह पाती
माँ सहमी-सहमी रह जाती है
होठों से कुछ ना कह पाती है।।
काश गर मैं बेटा होती,
नित आंखो से नूर बहाती है
सबके ताने सुन रह जाती है
ये जख्म उसे भी न मिलता
उसको भी तो आदर मिलता।।
वो भी गर्व से रह पाती, काश अगर मैं बेटा होती!

कालिंदी पाठक

Saturday 13 January 2018

एक संकल्प, विकल्प नही ।

अब समय नही संताप करने का
और दुश्मन को समझाने का
चलो उठो, संकल्प करो बस
कातिलो को सबक सिखाने का ।।

आलाप व्याप्त और चिर प्रतीत की
न ध्वनि को कर्ण तक जाने का
अब समय नही संताप करने का
और जाहिलों को समझाने का  ।।

है विकल, वियोग, विध्वंस यहाँ
माँ बनती रण में चंडी जब यहाँ
दुर्गाकाली व लक्ष्मीबाई बन के
करती है  यह पावन पुण्य धरा ।।

चुप रहने में  हानि है निज का
होगा कलिकाल,रक्तबीज वहाँ
अब समय नही संताप करने का
और दुश्मनो को समझाने का ।।

कर अटल निश्चय और लेके प्रण
उन शहीदों की आग बुझाने का
अब समय नही संताप करने का
और गीदड़ों  को समझाने का ।।

:- सुजीत कुमार पाण्डेय

Friday 5 January 2018

कुटाई की यादें 🤛🤜🤛🤜👊👊

शिक्षा ही देश को महान बनाती है । हमारा देश भी  शिक्षा के क्षेत्र में पीछे नहीं है । अगर बड़े लोगो की बात की जाय जिसके पास काली कमाई का अंबार है या फिर धनाढय है,  अपने बच्चों को इंटरनेशनल स्कूलों में ही दाखिल दिलाते है। अपने देश में भी इन इंटरनैशनल स्कूलों की तरह स्कूल मौजूद है जैसे रेयान, ahelcon, कम्ब्रिज, दिल्ली international स्कूल, RBS, इत्यादि ।

हमारे जवार मे भी लगभग हर दस से पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर कैम्ब्रिज, सरस्वती विद्या मंदिर,  वुडस्टॉक,  बिहार पब्लिक और बहुत सारे इंग्लिस मीडियम के स्कूल खुल गए है।  सबके पढ़ाई कराने के अलग-अलग पाठ्यक्रम, अलग-अलग ड्रेस, अलग- अलग बैच और अलग-अलग फीस  है । भले ही इन स्कूलों में पढ़ाई हिन्दी मीडियम से होती हो लेकिन स्कूल का नाम इंग्लिश में रखा जाता है ।
अरे भाई, स्कूल भी क्यों नही खुले । मुखिया जी लोगों ने जिसको चाहा ज्वाइनिंग लेटर थमा दिया । असली मेरिट वाले लोगों को नौकरी दूज के चाँद की तरह है । सच कहते है कि आजकल भगवान से भेंट करना आसान है लेकिन सरकारी नौकरी लेना मुश्किल काम है ।सरकार को एक भरती पूरा होने में आधे दशक निकल जाते है । खुदा ही जाने, कितने मुसीबतों को पार कर जाने के बाद भी अंत मे मेरिट तक पहुँचते पहुँचते खाली हाथ लौटना पड़ता है तब तक उम्र की समय सीमा सरहद पार कर चुकी होती है और अंत में जीविकोपार्जन के लिए  कही कुछ सहारा बनता है तो कही कोई प्राइवेट स्कूल या तो कही प्राइवेट कंपनियों के दरवाजे ..
वैसे बेरोजगारी की समस्या देश मे ही नही विदेशों में भी खूब है। आज हमारे देश को बाकी विकसित देश भी सलामी इसलिये ही तो ठोकते है क्योंकि हम सबसे बड़े आयातक है चाहे खाद्य पदार्थों की ले या सैन्य उपकरणों की, चाहे चिकित्सा जगत हो या इलेक्ट्रॉनिक क्षेत्र । अपने पर देश की बात की जाय तो सबसे ज्यादा उच्चतर श्रेणी में अपना स्थान आता है । अपने यहाँ से लोगों का पलायन बहुत ज्यादा है। अगर अपने ही राज्य में लोगों को काम मिल जाये, सरकार कम्पनियाँ लाये तो रोजगार मिल जाये ।
मैं तो भूल ही गया था, स्कूल की बात । हमारा भी बचपन कुछ ऐसे ही स्कूलों में बीता, इतने सारे गली गली में शिक्षा केन्द्र नही थे ।
प्राथमिक विद्यालय के बाद आगे की पढ़ाई प्रखंड के सरकारी स्कूल में हुई । क्या बताऊँ कितना मजा था । क्या गजब के दोस्त थे। एक अजब सी दास्तां है स्कूलों की ..खैर अब तो बात ही कुछ अलग है । मुझे लगता है कि स्कूलों में जितना कुटाई का महत्व है उतना दुनिया मे किसी चीज में नही। लेकिन अब कुटाई में बहुत हद तक कमी हो गई है इसी का प्रतिफल है कि आजकल के छात्र को गुरु के प्रति न कोई श्रद्धाभक्ति, त्याग और सहनशक्ति है और गुरुजनों को भी वो सदभाव, प्रेम और स्नेह ।
हमारी पढ़ाई थी, घर से पढ़ाई करने के बहाने निकल जाना और गाँव से 3 किलोमीटर दूर जाकर क्रिकेट मैच खेलना । हर दूसरे दिन मैच लेने का सिलसिला बरकरार रहता।  टीम कैप्टन की भी खूब मनमानी चलती। कुछ चाटुकार दोस्तों को टीम में पक्का जगह मिलती तो कुछ ऐसे भी दोस्तो की सीट सही सलामत रहती जिसके पास  "टाइगर जिंदा रहता" मतलब टाइगर बिस्कुट की बाजी में पैसा लगाने में अहम योगदान रहता । जो पैसा नही देता उसे टीम से बाहर निकल दिया जाता और चेहरे पर लाइट गुम होने पर टीम कैप्टन की मेहरबानी से वापसी होती ।
लट्टू में भी साइन करना आप लोग तो शायद भूल ही चुके होंगे । साइन होता है लट्टू की डोरी से लपेट कर जैसे लट्टू नाचने लगे डोरी के सहारे लपेटकर पुनः हाथ मे ले लेना। कई बार लट्टू में गुज (एक कील जो लट्टू के बीच मे लगाया जाता है) के लिए रामचंदू लोहार के पास घंटो लग जाते ।
स्कूल की पहला आधा सत्र ठीक तरह से निकल जाता, वजह था विषय मे हिंदी, सामाजिक विज्ञान, सामान्य विज्ञान का होना पर जैसे ही पहर गुजरता मानो हमारे लिए पूरे 2 घंटी निकलना बड़ा मुश्किल होता । अंग्रेजी तो किसी तरह से निकल जाती पर संस्कृत और मैथ से पीछा छुड़ाना मुश्किल ही नही नामुमकिन था। मैथ्स में कुटाई, अंग्रेजी खाली निकल जाती पर संस्कृत कालजली मुँह फाड़ कर आती और न जाने कितनों पर नागवार गुजरती कहना संभवतः कठिन था ।
ये दोनों कहावते खुलकर सामने घर कर जाती है ।
इकरा में कौनो पहाड़ा पढ़े के बा ।
ई काम करे में का मंतर पढ़े के है।
खुदा कसम, पूरा पढ़ाई का उम्र निकल गया पर अभी भी 18 और 19 के पहाड़े में गाड़ी अटक जाती है । शुरू का पाँच और अंतिम का एक 3 नंबर गियर में निकल जाता है पर अंतिम के बाकी चार एक नंबर गियर में भी गाड़ी फस जाती है । अब मालूम चला कि पहाड़ा याद करना कितना कठिन काम है और दूसरा मंतर पढ़ना उससे भी ज्यादा कठिन काम है । उन गुरुओं को आज भी नमन करता हूँ जिन्होंने बड़े बड़े संस्कृत पाठों को कंठस्थ किया है । 10 श्लोक याद करने में महीनों लग जाते फिर भी कुछ न कुछ खामियां रह जाती थी ।
मुझे याद है हमारे गुरु राय जी"  लता शब्द रूप याद करने के लिए दिए थे पर ठीक से याद नही हुआ था । अगले दिन खूब जोर से कुटाई हुई थी, तब रात के स्वप्न में भी लता याद आ जाती । पूरे क्लास में एकाध लड़के थे जो श्लोक याद करने में माहिर थे और राय जी से यदा कदा ही एक दो छड़ी खाते थे बाकी पूरे क्लास की कुटाई होना लाजिमी था, हम में से कुछ दोस्तो को संस्कृत ने पढ़ाई ही छोडवा के दम लिया ।
दो कविता को सुन सुनकर घर वालो के भी कान पक चुके थे,
पहला :- हवा हूँ हवा हुँ बसंती हवा हुँ
दूसरा :-  खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।
मुझे आज भी पूरी तरह से याद है जब रात में छत पर लालटेन जलाकर पढ़ते और पढ़ाई में मन नही लगता तो आँख बंद कर यही जोर जोर से शुरू हो जाता ।  माँ कभी कभी बोलने लगती । क्या तुम्हारे बुक में एक ही कविता है जो रोज रोज सुनाते रहते है, चोरी छिपाने के लिए कहना पड़ता की कल सरजी को यही कविता सुनाना है न ।
स्कूल जाने के लिए पैसे की जिद करना भी कहाँ अभी तक भूले है । पूरी की पूरी राम कहानी अभी पूरी तरह से याद है एक रुपये में दो प्लेट चाट में जो मजा था उसका स्वादिष्ट आज के बड़े बड़े रेस्टोरेंट में भी फीका है ।
कुछ बड़े हुए आगे की स्कूलों में दाखिला लिए और कुटाई की संभावनाएं कम होने लगी । अब तो धीरे धीरे आजाद, उन्मुक्त पंछी बन गए पर अब कोई समझाने बताने या कूटने वाला नही रहा जिसकी कमी स्वत् महसूस होने लगी थी ।
आज मैं उन गुरुओं को सादर नमन करता हुँ जिन्होंने मुझे कूट कूटकर यहाँ पहुँचाया और अभी तक बरबस याद आते रहते है ।

Thursday 4 January 2018

माँ यमुना साक्षात्कार- दिल्ली भाग 1

​ठिठुरती ठंड में रजाई से निकल कर संध्या की बेला में  यमुना के किनारे पहुँचा  ........ निगम बोध उत्तरी दिल्ली श्मशान स्थल ...; जहाँ पर लोग अपनी जीवन लीला अस्त कर अस्थि रूप लेकर सदा के लिए स्थिर हो जाते है । 

बड़ा ही अजीब दृश्य था । लोगों का मेला लगा हुआ था । एक के बाद एक आने जाने वालों की लगातार संख्या लगभग हजारो में थी । हालाँकि पुरुषों की तुलना में स्त्तियाँ कम थी । आने जाने वालों के मुँह से एक ही वाक्य निकल रहे थे । 


"राम नाम सत्य है"


और मुख्य द्वार पर ही लिखा था ।


"मुझे यहां तक पहुचाने के लिए शुक्रिया, इसके आगे हम अकेले ही चल जाएंगे"


वाकई बड़े से बड़े हस्ती वाले जिन्होंने महल और अटारी बना रखे हो या जिंदगी की सारी सुख-सुविधा मिल चुकी हो उनके परिजन मुख्य दरवाजों तक ही अपने मर्सिडीज कार ले आने की अनुमति है या फिर दूसरा जो चौक-चौराहों पर भीख मांग कर जीवन बिताया हो, दोनो के जीवन की लीला यही समाप्त होती है । राजा और रंक दोनो के लिए यहाँ कोई भेदभाव नही है। यहाँ जो भी आता है उसके घमंड और शौर्य की साहस चकनाचूर हो जाती । 


घाट पर कुत्ते, कौवे और बगुले मांस के लिए अपनी अपनी आस लगाए बैठे थे । क्षुधा तृप्ति के लिए लालायित को यदा कदा दो चार लठ खाना भी पड़ जाता था ।



यमुना घाट पहुँचने पर वहाँ बैठने के लिए बहुत सारे पत्थर के बेंच बनाया गया है, कुछ घंटे  गुजरने के बाद ठंड कुछ ज़्यादा ही लगने लगा । कुछ दूरी पर चार पाँच लोग अलाव जलाकर बैठे थे ।  माँ यमुना लहरों से बह रही ठण्डी हवाओं से ठंड ऐसा लग रहा था जैसे हवाओं का मिलन हड्डियों से हो रहा हो  । शाम के बाद अंधेरा होने लगा और शरीर मे आलस होने सोचते विचारते हुए ही न जाने कब नींद लग गई । जब आँखे खुली तो खुद को अकेला यमुना के तीर पाकर सहम गया । काफी देर सोचने के बाद भी यह वहम हो रहा था कि पूर्णमासी की चाँदनी रात में मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ ।


पीछे की तरफ पांडवो के द्वारा बसाया गया विशाल नगर राजधानी इंद्रप्रस्थ की विशालता से अभिभूत होकर मुझे इस नगर के बारे में न जाने कहाँ से सोच आई । 


शीतल कलकल करती हुई माँ यमुना के सदृश्य हो ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मेरे मन मे उठे सवालों का जबाब यहाँ  मिल सकता है । तबतक यमुना नदी से बढ़ती आ रही धाराओं ने मुझे खुद में समाहित कर लिया । 

यह मेरे लिए एक अलग ही दुनिया से रुबरु करा रही थी। बैठे बैठे मुझे एक दिव्य प्रकाश दिखाई दिया  जिसपर नजर टिका पाना मुश्किल लग रहा था ।


दिव्य स्रोत से आ रही किरणों को देखकर मैं काफी डर गया ..और आस पास नजर दौड़ाया तो खुद को अकेला पा प्राण पखेरू उड़ गए ।


दिव्य पुंज से आवाज आई  ... 


डरो मत । ......................... वत्स ।


मैं   ...........कालिंदी हुँ।


मैं सूर्यपुत्री हुँ और मृत्यु के देवता यम की बहन हुँ । कृष्ण के ब्रज में "जमुना मैया" के नाम से जानी जाती हूँ । मैं  (कलिंद दुर्गम पर्वत से होकर यमुनोत्री के बंदरपूछ से होकर बहती हु) द्वापर युग से अब तक यहाँ बहती आई हूँ और नगर के लोगों के हर वक्त कल्याण की कामना करती हूँ । तुम्हारी उदासी को देख नही रहा गया । 


बोलो किस लिए चिंतित हो ? तुम्हे डरने की कोई जरूरत नही है ।

मैने दोनों हाथों को जोड़कर प्रणाम किया और सहज भाव से बोल पड़ा। 

लहरों ने एक बार फिर से ऊपर उठकर मेरे पास आकर रुक गया । फिर आवाज आई ।

मैं - माते, आप गंगा मईया की तरह गोरी क्यों नही हो, आपका रंग स्यामल क्यों है ?

यमुना :-  पुत्र, मेरे पिता भगवान सूर्य है जो मेरी माँ छाया है । मेरी माँ श्यामल रंग की थी इन्ही का प्रभाव मेरे ऊपर पड़ा, इसलिये मैं श्यामल हूँ ।

मैं - माते मुझे इस नगर के बारे में विस्तृत जानकारी लेना चाहता हूँ । इतना कहते ही धाराओं की लहर ने मुझे तेज़ गति से बहती हुई आकर मुझे अपने आगोश में ले लिया और मेरी आँखों के सामने प्रकाश पुंज से एक स्यामल गौर स्त्री स्वरूप माँ का साक्षात दर्शन हुआ और मीठे स्वरों में बोली  ।

यमुना - पुत्र, मैं तुम्हारी सभी जिज्ञासाओं को पूरा करूँगी ।


मैं - जी, माते 


आगे की कहानी के लिए कृपया वक़्त लगेगा ।