Friday 5 January 2018

कुटाई की यादें 🤛🤜🤛🤜👊👊

शिक्षा ही देश को महान बनाती है । हमारा देश भी  शिक्षा के क्षेत्र में पीछे नहीं है । अगर बड़े लोगो की बात की जाय जिसके पास काली कमाई का अंबार है या फिर धनाढय है,  अपने बच्चों को इंटरनेशनल स्कूलों में ही दाखिल दिलाते है। अपने देश में भी इन इंटरनैशनल स्कूलों की तरह स्कूल मौजूद है जैसे रेयान, ahelcon, कम्ब्रिज, दिल्ली international स्कूल, RBS, इत्यादि ।

हमारे जवार मे भी लगभग हर दस से पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर कैम्ब्रिज, सरस्वती विद्या मंदिर,  वुडस्टॉक,  बिहार पब्लिक और बहुत सारे इंग्लिस मीडियम के स्कूल खुल गए है।  सबके पढ़ाई कराने के अलग-अलग पाठ्यक्रम, अलग-अलग ड्रेस, अलग- अलग बैच और अलग-अलग फीस  है । भले ही इन स्कूलों में पढ़ाई हिन्दी मीडियम से होती हो लेकिन स्कूल का नाम इंग्लिश में रखा जाता है ।
अरे भाई, स्कूल भी क्यों नही खुले । मुखिया जी लोगों ने जिसको चाहा ज्वाइनिंग लेटर थमा दिया । असली मेरिट वाले लोगों को नौकरी दूज के चाँद की तरह है । सच कहते है कि आजकल भगवान से भेंट करना आसान है लेकिन सरकारी नौकरी लेना मुश्किल काम है ।सरकार को एक भरती पूरा होने में आधे दशक निकल जाते है । खुदा ही जाने, कितने मुसीबतों को पार कर जाने के बाद भी अंत मे मेरिट तक पहुँचते पहुँचते खाली हाथ लौटना पड़ता है तब तक उम्र की समय सीमा सरहद पार कर चुकी होती है और अंत में जीविकोपार्जन के लिए  कही कुछ सहारा बनता है तो कही कोई प्राइवेट स्कूल या तो कही प्राइवेट कंपनियों के दरवाजे ..
वैसे बेरोजगारी की समस्या देश मे ही नही विदेशों में भी खूब है। आज हमारे देश को बाकी विकसित देश भी सलामी इसलिये ही तो ठोकते है क्योंकि हम सबसे बड़े आयातक है चाहे खाद्य पदार्थों की ले या सैन्य उपकरणों की, चाहे चिकित्सा जगत हो या इलेक्ट्रॉनिक क्षेत्र । अपने पर देश की बात की जाय तो सबसे ज्यादा उच्चतर श्रेणी में अपना स्थान आता है । अपने यहाँ से लोगों का पलायन बहुत ज्यादा है। अगर अपने ही राज्य में लोगों को काम मिल जाये, सरकार कम्पनियाँ लाये तो रोजगार मिल जाये ।
मैं तो भूल ही गया था, स्कूल की बात । हमारा भी बचपन कुछ ऐसे ही स्कूलों में बीता, इतने सारे गली गली में शिक्षा केन्द्र नही थे ।
प्राथमिक विद्यालय के बाद आगे की पढ़ाई प्रखंड के सरकारी स्कूल में हुई । क्या बताऊँ कितना मजा था । क्या गजब के दोस्त थे। एक अजब सी दास्तां है स्कूलों की ..खैर अब तो बात ही कुछ अलग है । मुझे लगता है कि स्कूलों में जितना कुटाई का महत्व है उतना दुनिया मे किसी चीज में नही। लेकिन अब कुटाई में बहुत हद तक कमी हो गई है इसी का प्रतिफल है कि आजकल के छात्र को गुरु के प्रति न कोई श्रद्धाभक्ति, त्याग और सहनशक्ति है और गुरुजनों को भी वो सदभाव, प्रेम और स्नेह ।
हमारी पढ़ाई थी, घर से पढ़ाई करने के बहाने निकल जाना और गाँव से 3 किलोमीटर दूर जाकर क्रिकेट मैच खेलना । हर दूसरे दिन मैच लेने का सिलसिला बरकरार रहता।  टीम कैप्टन की भी खूब मनमानी चलती। कुछ चाटुकार दोस्तों को टीम में पक्का जगह मिलती तो कुछ ऐसे भी दोस्तो की सीट सही सलामत रहती जिसके पास  "टाइगर जिंदा रहता" मतलब टाइगर बिस्कुट की बाजी में पैसा लगाने में अहम योगदान रहता । जो पैसा नही देता उसे टीम से बाहर निकल दिया जाता और चेहरे पर लाइट गुम होने पर टीम कैप्टन की मेहरबानी से वापसी होती ।
लट्टू में भी साइन करना आप लोग तो शायद भूल ही चुके होंगे । साइन होता है लट्टू की डोरी से लपेट कर जैसे लट्टू नाचने लगे डोरी के सहारे लपेटकर पुनः हाथ मे ले लेना। कई बार लट्टू में गुज (एक कील जो लट्टू के बीच मे लगाया जाता है) के लिए रामचंदू लोहार के पास घंटो लग जाते ।
स्कूल की पहला आधा सत्र ठीक तरह से निकल जाता, वजह था विषय मे हिंदी, सामाजिक विज्ञान, सामान्य विज्ञान का होना पर जैसे ही पहर गुजरता मानो हमारे लिए पूरे 2 घंटी निकलना बड़ा मुश्किल होता । अंग्रेजी तो किसी तरह से निकल जाती पर संस्कृत और मैथ से पीछा छुड़ाना मुश्किल ही नही नामुमकिन था। मैथ्स में कुटाई, अंग्रेजी खाली निकल जाती पर संस्कृत कालजली मुँह फाड़ कर आती और न जाने कितनों पर नागवार गुजरती कहना संभवतः कठिन था ।
ये दोनों कहावते खुलकर सामने घर कर जाती है ।
इकरा में कौनो पहाड़ा पढ़े के बा ।
ई काम करे में का मंतर पढ़े के है।
खुदा कसम, पूरा पढ़ाई का उम्र निकल गया पर अभी भी 18 और 19 के पहाड़े में गाड़ी अटक जाती है । शुरू का पाँच और अंतिम का एक 3 नंबर गियर में निकल जाता है पर अंतिम के बाकी चार एक नंबर गियर में भी गाड़ी फस जाती है । अब मालूम चला कि पहाड़ा याद करना कितना कठिन काम है और दूसरा मंतर पढ़ना उससे भी ज्यादा कठिन काम है । उन गुरुओं को आज भी नमन करता हूँ जिन्होंने बड़े बड़े संस्कृत पाठों को कंठस्थ किया है । 10 श्लोक याद करने में महीनों लग जाते फिर भी कुछ न कुछ खामियां रह जाती थी ।
मुझे याद है हमारे गुरु राय जी"  लता शब्द रूप याद करने के लिए दिए थे पर ठीक से याद नही हुआ था । अगले दिन खूब जोर से कुटाई हुई थी, तब रात के स्वप्न में भी लता याद आ जाती । पूरे क्लास में एकाध लड़के थे जो श्लोक याद करने में माहिर थे और राय जी से यदा कदा ही एक दो छड़ी खाते थे बाकी पूरे क्लास की कुटाई होना लाजिमी था, हम में से कुछ दोस्तो को संस्कृत ने पढ़ाई ही छोडवा के दम लिया ।
दो कविता को सुन सुनकर घर वालो के भी कान पक चुके थे,
पहला :- हवा हूँ हवा हुँ बसंती हवा हुँ
दूसरा :-  खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।
मुझे आज भी पूरी तरह से याद है जब रात में छत पर लालटेन जलाकर पढ़ते और पढ़ाई में मन नही लगता तो आँख बंद कर यही जोर जोर से शुरू हो जाता ।  माँ कभी कभी बोलने लगती । क्या तुम्हारे बुक में एक ही कविता है जो रोज रोज सुनाते रहते है, चोरी छिपाने के लिए कहना पड़ता की कल सरजी को यही कविता सुनाना है न ।
स्कूल जाने के लिए पैसे की जिद करना भी कहाँ अभी तक भूले है । पूरी की पूरी राम कहानी अभी पूरी तरह से याद है एक रुपये में दो प्लेट चाट में जो मजा था उसका स्वादिष्ट आज के बड़े बड़े रेस्टोरेंट में भी फीका है ।
कुछ बड़े हुए आगे की स्कूलों में दाखिला लिए और कुटाई की संभावनाएं कम होने लगी । अब तो धीरे धीरे आजाद, उन्मुक्त पंछी बन गए पर अब कोई समझाने बताने या कूटने वाला नही रहा जिसकी कमी स्वत् महसूस होने लगी थी ।
आज मैं उन गुरुओं को सादर नमन करता हुँ जिन्होंने मुझे कूट कूटकर यहाँ पहुँचाया और अभी तक बरबस याद आते रहते है ।

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