Monday 14 May 2018

एक चर्चा :- बाबा नागार्जुन की

"वतन बेचकर पंडित नेहरू फुले नहीं समाते हैं,
बेशर्मी की हद हैं फिर भी बातें बड़ी बनाते हैं।"
जनकवि बाबा नागार्जुन का नाम भारत के वामपंथी कवियों में आता हैं। गरीबी, भूख, कुशासन, और भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्भीक होकर आवाज उठाने वाले आप कवि रहे हैं।
आपका जन्म 11 जून 1911ई. में  बिहार के  दरभंगा जिले के तरौनी गाँव में हुआ था। आपका बचपन का नाम " ठक्कर" था जबकि स्कूली नाम वैद्धनाथ मिश्र था । बाद में मैथिली कविताओं में आप "यात्री " नाम से प्रसिद्ध हुए। वैसे आपने खेल-खेल में ही लिखना शुरू किया था किंतु सन 1938 ई.  में आप " नागार्जुन " नाम से प्रसिद्ध हुए । आपकी पढ़ाई-लिखाई कुछ खास नहीं थी, बल्कि आपने जो कुछ भी पढ़ा अपनी जिंदगी से पढ़ा और अनुभवों से गढ़ा।
आप कहते हैं कि...मैं यायावर किस्म के आदमी हैं और..
"जिस आदमी को बहत्तर चूल्हे का खाना लगा हो वह एक घर में कहाँ टिक पाता हैं।"
आपकी कविताएं जनमानस में एक अद्भुत और बेमिसाल छाप छोड़ती हैं। आपकी कविता की दुनिया वैसी ही व्यापकता और विविधता से भरी हुई हैं जैसी व्यापकता और विविधता हमारे देश में हैं। प्रकृति के सौन्दर्यपारखी, घुमक्कड़ और मुख्यतः राजनीतिक कवि बाबा नागार्जुन की कविता एकदम सीधी चोट करती हैं उन निरंकुशता, सामाजिक कुव्यवस्था पर जहाँ खटकती हैं एक आवाज बनकर...
आपको घुमक्कड़ी की ललक पंडित राहुल सांकृत्यायन जी से मिली। आपकी कविता ही भारत के भोगौलिक क्षेत्र से चित परिचित कराती हैं तभी तो उतर में हिमालय से लेकर दक्षिण में केरल और पूरब में मिजोरम से लेकर पश्चिम में गुजरात तक के बारे में लिखने से नहीं चूके हैं।
सन 1939 ई. में आप स्वामी सहजानंद सरस्वती जी और सुभाष चंद बोस जी के साथ "किसान आंदोलन" में भाग लिए जिसमें आपको हजारीबाग जेल जाना पड़ा, पुनः सन 1941ई. में छपरा की  "किसान रैली" का नेतृत्व किया जिसमें पुनः आपको भागलपुर जेल जाना पड़ा ।
बाबा नागार्जुन चार भाषाओं में कविता लिखे हैं जो हैं हिंदी, मैथिली, संस्कृत और बांग्ला। वे अपने आप को खुद "औघड़ गोत्र"  का कवि बताते हैं।
सन 1961ई. में जब ब्रिटेन की महारानी भारत आई थी तब कविता का रूप देखर कटु आलोचना किये थे...
आओ रानी हम ढोएंगे पालकी....
राजनीतिक कविताओं में,
1. आओ रानी हम ढोएंगे पालकी
2. शासन की बंदूक
सौन्दर्यादित कविताओं में,
1. गुलाबी चूड़ियाँ
2.लच्छो की अम्मा
3.मेरी नवजात सखी
मौसमी कविताओं में,
1. वसंत की आगवानी
2. नीम की दो टहनियां
3. शरद पूर्णिमा
काव्य भाषा संबंधित अनेकरूपता में भाषा की बुनावट, शब्दों के संयोजन में उनकी नाम कवि तुलसीदास और निराला जी के साथ आता हैं।
नामवर सिंह ने लिखा हैं कि " नागार्जुन की गिनती न तो प्रयोगशील कवियों के संदर्भ में होती हैं और न नई कविता प्रसंग में,,,, फिर भी कविता के रूप सम्बन्धी जितने प्रयोग अकेले नागार्जुन ने किए हैं, उतने शायद किसी न किये हों!
बाकी बच गया अण्डा
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पाँच पूत भारतमाता के, दुश्मन था खूँखार
गोली खाकर एक मर गया, बाक़ी रह गए चार
चार पूत भारतमाता के, चारों चतुर-प्रवीन
देश-निकाला मिला एक को, बाक़ी रह गए तीन
तीन पूत भारतमाता के, लड़ने लग गए वो
अलग हो गया उधर एक, अब बाक़ी बच गए दो
दो बेटे भारतमाता के, छोड़ पुरानी टेक
चिपक गया है एक गद्दी से, बाक़ी बच गया एक
एक पूत भारतमाता का, कन्धे पर है झण्डा
पुलिस पकड कर जेल ले गई, बाकी बच गया अण्डा
रचनाकाल : 1950
अकाल और उसके बाद
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कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।
[ बाबा नागार्जुन को मैं पहली बार पढ़ा और मेरे लिए सबसे खास कवि बन गये। इस आलेख को मैंने चित्र में दर्शाये गए पुस्तक और कवि कुमार विश्वास जी की वीडियो से लिखा हैं, साभार इंटरनेट काका,......]

Sunday 6 May 2018

..इसीलिये अरेंज वाली नहीं टूटती हैं शादियां!!



इसीलिये अरेंज वाली नहीं टूटती हैं शादियाँ!!
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यूँ कहें तो हमारे यहाँ शादी हमारी लोकसमाज और संस्कृति की थाती हैं। यह एक ऐसी धरोहर हैं जिसका निर्वहन अगर इसकी संस्कृति से होकर की जाती हैं तो परमानंद की अनुभूति होती हैं, उस दूल्हे-दुल्हन की, घर वाले की, सगे-संबंधियों की और पूरे गाँव को भी।

दरअसल कहते हैं न!,.......
शादी एक ऐसा बंधन हैं जिसमें लड़का-लड़की एक दूसरे के सुख दुख में शरीक होने का प्रण लेते हैं।

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"लड़की का पक्ष सुयोग्य वर और लड़का पक्ष सुकन्या खोजने में जब हारथक जाता हैं तब उसे अपनी लालसा को संकुचित और संतुलित करना पड़ता हैं, तभी बियाह ठीक होता हैं।"

शादी में जहाँ दूल्हा पूरे गाँव का राजकुमार होता हैं तो वही दुल्हन पूरे गाँव की बेटी होती हैं। रोचक बात ये है कि उस गाँव के पुरे लड़के "साले" और लड़कियां "साली" मानी जाती हैं। अगर आदर सत्कार यथोचित नहीं होता हैं तो पूरे गाँव की बदनामी होती हैं। लोग कह देते हैं कि

"फ़ला गाँव में बारातियों का कदर नहीं होता हैं" ।

दरअसल, दुवारे बारात वाला सिस्टम उत्तरी कोरिया वाले किम जोंग के परमाणु परीक्षण से जरा भी कम नहीं होता। इसमें कितनी गाड़ी लाये हैं? हाथी घोड़ा हैं कि नहीं। बारातियों का वेशभूषा कैसा हैं? सबकुछ झलक जाता हैं। शादी का पहला इम्प्रेशन यही से शुरू होता हैं।
और शुरू हो जाता हैं..

"ओ जिमि जिमि आजा, वाला धुन ...."
論

जयमाल के समय दूल्हा तो राजा रहता ही हैं किंतु दूल्हे के साथ गया खुबसुन्दर छोटा बच्चा जो दूल्हे भी भाति सजाया जाता हैं, "सहबाला" कहा जाता हैं, का भाव सातवें आसमाँ पर रहता हैं।

अब आगे शादी रस्म आता हैं जो पंडीजी के प्रवचन से शुरू होता हैं और न जाने क्या क्या कसम, कहानी, कथा कहकर इतना समय लगा देते हैं कि ऐसा लगता हैं...

"सातों जन्म की शादी का रस्म इस जन्म ही करा देंगे।"

रात में जब खाना खाने का बारी आता हैं तब त अउर लीला मच जाता हैं। लड़का पहले खाता नहीं हैं, माड़ो
में खाना खाने का प्रबंध होता हैं सबको खाना परोसा जाता हैं लेकिन दूल्हा खाता नहीं हैं वो जाता हैं .........',"रूस"
रुसने वाली प्रथा सदियों से चली आ रही हैं। यह एक रस्म होता हैं जिसमें कुछ द्रव्य जैसे कि अँगूठी, घड़ी या कुछ पैसे दूल्हा को दे दिया जाता हैं।
अब शुरू हो जाता हैं गाली वाला टाइम। खाते हुए बारातियों को महिलाएं इतना गाली देती हैं कि पुड़ी से कम लेकिन गाली से ज्यादा पेट भर जाता हैं और इसे शुभ माना जाता हैं। कहते हैं कि गाली जितना ज्यादा सुनने को मिलता हैं रिश्ता उतना ही मजबूत होता हैं।

कोहबर में जाकर सालियों के बीच बैठ जाने से ऐसा प्रतीत होता हैं, जैसे जीवन का सबसे बड़ा संकट सर सवार होने में कुछेक समय रह गया हैं। इसमें जूता चुराई के रस्म से ही ससुराल पक्ष यह भली भांति समझ लेता हैं कि दूल्हे का व्यवहार कैसा हैं, मोल तौल कर पैसा निकलता हैं या गुस्सा कर खिसियाने वाला हैं।

सुबह का समधी मिलन पूरे कार्यक्रम में हुए भूल चुक मिटाकर गले लगने की प्रक्रिया हैं किंतु रात भर जगने के बाद सुबह में नाच, बाजा, तम्बू-सामियाना आदि का पैसा देना छाती फाड़कर कलेजा निकालने से जरा भी कम नहीं लगता।
अंत में समय आता हैं दुल्हन विदा होने का जिसमें दूल्हन जब घर वालों से अलग होती हैं तो रोती हैं बेटी की रुन्दन से उसकी माँ, बहन और सखियां भी रोती हैं।


हालांकि यह रोने वाला रस्म धीरे धीरे विलुप्त होते जा रही हैं।
तात्पर्य यह हैं कि शादी में वर और वधु दोनों पक्ष का इतना ज्यादा खर्चा होता हैं कि एक आम आदमी की जमापूंजी नील बट्टे सन्नाटा हो जाता हैं। दूसरी बात सामाजिक तौर पर भी गाँव, समाज शादी का प्रत्यक्षदर्शी होता हैं।

.....इसीलिये नहीं टूटती हैं शादियां!!
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सुजीत पाण्डेय छोटू
        बक्सर

Saturday 5 May 2018

Walled city (वाल्ड सिटी) क्या हैं??

दिल्ली में लगभग ग्यारह सौ चालीस दिन गुजारने के बाद भी यहाँ की वाल्ड सिटी के बारे में नहीं जान सका, आज सुबह सुबह मेरी नजर चावड़ी बाजार के एक साइन बोर्ड पर पड़ी, जिसपर लिखा था...

*" वाल्ड सिटी में आपका स्वागत हैं।"

ताज्जुब हुआ इतना दिन ये बोर्ड तो दिखा नहीं, आज कैसे दिख गया किन्तु वहाँ से गुजरते वक़्त या तो जल्दबाजी रहती हैं या इतनी भीड़भाड़ रहती हैं कि खुद को ऑटो रिक्शे, टेम्पू, और अन्य गाड़ियों से बीच बचते बचते निकलने की वजह से नहीं दिखा होगा।

दिल्ली के कुछ खास जगहों को वाल्ड सिटी के नाम से जाना जाता हैं। वाल्ड सिटी में मुख्यतः पुरानी दिल्ली के चांदनी और चावड़ी बाजार का एरिया आता हैं और इसका केंद्रीय बिंदु लाल किला हैं। लाल किला से निकलने वाले रास्ते मुख्य सड़क हैं। लाल किला के ठीक तीनों तरह का समानांतर रोड इसकी मुख्य सड़क थी। 

कहते हैं कि पुरानी दिल्ली को मुगल शासक शाहजहां ने सन सोलह सौ उनतालीस में बसाया था और इसे राजधानी बनाकर नाम दिया था "शाहजहाँबाद"....!


उस समय यह शाहजहाँबाद का एरिया पूरी तरह चाक चौबंद था और पूरी तरह से घेराबंदी कर 14 गेटों से सील्ड था। ये गेट रात के समय बंद कर दिए जाते थे और पहरेदार लगाए जाते थे । यह एरिया पंद्रह सौ एकड़ यानी लगभग 6.1 km  में बसा हुआ था। कुछ मुख्य गेट नीचे दिए गए हैं....

1. कश्मीरी गेट:- उत्तर दिशा

2. मोरी गेट। :- उत्तर दिशा

3. निगमबोध गेट:- उत्तरपूर्व दिशा

4. लाहौरी गेट:- पच्छिम दिशा

5. अजमेरी गेट:- दक्षिण पूर्व दिशा

6. तुर्कमानी गेट:-  दक्षिण पूर्व दिशा

7. दिल्ली गेट:-दक्षिण दिशा

8. काबुली गेट:- पश्चिम दिशा

9. खूनी दरवाजा:- इसका निर्माण शेरशाह सूरी ने कराया था ।

इन दरवाजों के चारों तरफ की ऊँचाई लगभग 26 फ़ीट की बनाईं गई थी, और मुख्य दरवाजे की ऊंचाई 26 फ़ीट थी,जो लाल पत्थर से बना हुआ था।

कहते हैं कि कश्मीरी गेट से होते हुए जो सड़क हैं वो कश्मीर को जाता था इसलिए ही इसका नाम कश्मीरी गेट पड़ा और निगमबोध का द्वार जो अब निगमबोध घाट हैं जहाँ अब दाह संस्कार किया जाता हैं।

इसका बहुधा भाग सन 1857 में हुए विद्रोह में तोड़कर गार्डन वैगेरह बना दिया गया। कुछ गेट अभी भी विरासत के रूप में टूटे-फूटे हैं। 


[वाल्ड सिटी को देखकर मन में इसके बारे में जानने की इच्छा हुई, उक्त सभी जानकारियाँ  गूगल बाबा से प्राप्त की गई हैं]


Thursday 3 May 2018

!! मेरी रूह !!

* मेरी रूह *
मेरी रूह बसती है उस दुवार पर,
जहाँ रोज सुबह के आठ बजे सुकुरती डेरा डालती है। और जब वो पूँछ हिलाते हुए पहुँचती है, तो माँ कहती है

"जा एगो रोटी दे दऽ, बेचारी भूखाइल होई"

मेरी रूह बसती है उस घर में,
जहाँ पेट भरने के बाद भी माँ जबरदस्ती अपने हाथों से ठूँस-ठूँस कर खाना खिलाते हुए कहतीीm है..

"खा ल, काहे काहे चिंताऽ करत बाड़ऽ!,  तहरा कमाई के आसरा नइखे"

मेरी रूह बसती है वहाँ,
जहाँ एक गइया है जो सुबह-सुबह खाने के लिए मकई की टाटी पर पूँछ पटकती है और लेट होने पर अलार्म के तौर पर रंभाती है।

मेरी रूह बसती है उस खलिहान में,
जहाँ हम बचपन में क्रिकेट और बॉलीबाल खेलते थे। इस दौरान खेल गेंद किसी के पाथे हुए गोबर में चले जाने से उसे कचटने पर गालियाँ सुनकर हँसते थे।

"तब ना तो कोई अदब था और ना ही कोई गुरुर"

मेरी रूह बसती है ब्रह्म बाबा स्थान में,
जहाँ मेरा बचपन घोड़ा बैठने, लट्टू, गोली, चीका, कबड्डी खेलने में गुज़रा। वहाँ जब बारिस होती, तो बेंग की आवाज सुनने के लिए टाइम निकाल लेते और फुरसत से कागज की नाव बनाते।

" पूरे गाँव का आस्था और भक्ति का केन्द्र है"

मेरी रूह बसती है उस आँगन में,
जहाँ होली के दिन पंकजवा भाँग खाके अपना भउजी पर रंग से जादा गोबर उड़ेलकर होली खेलता था।

"तब ना आपस में बैर था, न कोई आशंका"

मेरी रूह बसती हैं मेरे गाँव गोप भरौली,सिमरी,बक्सर में,
जहाँ कोई आलीशान बिल्डिंग नहीं हैं,
गुजर-बसर करने लायक कुछ कच्चे-पक्के-करकट-माटी के मकान, जिन तक अभी पक्की सड़क नहीं पहुँची है, सुना है वो कहीं रास्ते में हैं

" पर बसता वहाँ सुकून हैं"

            :-  सुजीत पाण्डेय छोटू

【विशेष आभार:-  Sri Krishna Jee Pandey】