Sunday 6 May 2018

..इसीलिये अरेंज वाली नहीं टूटती हैं शादियां!!



इसीलिये अरेंज वाली नहीं टूटती हैं शादियाँ!!
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यूँ कहें तो हमारे यहाँ शादी हमारी लोकसमाज और संस्कृति की थाती हैं। यह एक ऐसी धरोहर हैं जिसका निर्वहन अगर इसकी संस्कृति से होकर की जाती हैं तो परमानंद की अनुभूति होती हैं, उस दूल्हे-दुल्हन की, घर वाले की, सगे-संबंधियों की और पूरे गाँव को भी।

दरअसल कहते हैं न!,.......
शादी एक ऐसा बंधन हैं जिसमें लड़का-लड़की एक दूसरे के सुख दुख में शरीक होने का प्रण लेते हैं।

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"लड़की का पक्ष सुयोग्य वर और लड़का पक्ष सुकन्या खोजने में जब हारथक जाता हैं तब उसे अपनी लालसा को संकुचित और संतुलित करना पड़ता हैं, तभी बियाह ठीक होता हैं।"

शादी में जहाँ दूल्हा पूरे गाँव का राजकुमार होता हैं तो वही दुल्हन पूरे गाँव की बेटी होती हैं। रोचक बात ये है कि उस गाँव के पुरे लड़के "साले" और लड़कियां "साली" मानी जाती हैं। अगर आदर सत्कार यथोचित नहीं होता हैं तो पूरे गाँव की बदनामी होती हैं। लोग कह देते हैं कि

"फ़ला गाँव में बारातियों का कदर नहीं होता हैं" ।

दरअसल, दुवारे बारात वाला सिस्टम उत्तरी कोरिया वाले किम जोंग के परमाणु परीक्षण से जरा भी कम नहीं होता। इसमें कितनी गाड़ी लाये हैं? हाथी घोड़ा हैं कि नहीं। बारातियों का वेशभूषा कैसा हैं? सबकुछ झलक जाता हैं। शादी का पहला इम्प्रेशन यही से शुरू होता हैं।
और शुरू हो जाता हैं..

"ओ जिमि जिमि आजा, वाला धुन ...."
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जयमाल के समय दूल्हा तो राजा रहता ही हैं किंतु दूल्हे के साथ गया खुबसुन्दर छोटा बच्चा जो दूल्हे भी भाति सजाया जाता हैं, "सहबाला" कहा जाता हैं, का भाव सातवें आसमाँ पर रहता हैं।

अब आगे शादी रस्म आता हैं जो पंडीजी के प्रवचन से शुरू होता हैं और न जाने क्या क्या कसम, कहानी, कथा कहकर इतना समय लगा देते हैं कि ऐसा लगता हैं...

"सातों जन्म की शादी का रस्म इस जन्म ही करा देंगे।"

रात में जब खाना खाने का बारी आता हैं तब त अउर लीला मच जाता हैं। लड़का पहले खाता नहीं हैं, माड़ो
में खाना खाने का प्रबंध होता हैं सबको खाना परोसा जाता हैं लेकिन दूल्हा खाता नहीं हैं वो जाता हैं .........',"रूस"
रुसने वाली प्रथा सदियों से चली आ रही हैं। यह एक रस्म होता हैं जिसमें कुछ द्रव्य जैसे कि अँगूठी, घड़ी या कुछ पैसे दूल्हा को दे दिया जाता हैं।
अब शुरू हो जाता हैं गाली वाला टाइम। खाते हुए बारातियों को महिलाएं इतना गाली देती हैं कि पुड़ी से कम लेकिन गाली से ज्यादा पेट भर जाता हैं और इसे शुभ माना जाता हैं। कहते हैं कि गाली जितना ज्यादा सुनने को मिलता हैं रिश्ता उतना ही मजबूत होता हैं।

कोहबर में जाकर सालियों के बीच बैठ जाने से ऐसा प्रतीत होता हैं, जैसे जीवन का सबसे बड़ा संकट सर सवार होने में कुछेक समय रह गया हैं। इसमें जूता चुराई के रस्म से ही ससुराल पक्ष यह भली भांति समझ लेता हैं कि दूल्हे का व्यवहार कैसा हैं, मोल तौल कर पैसा निकलता हैं या गुस्सा कर खिसियाने वाला हैं।

सुबह का समधी मिलन पूरे कार्यक्रम में हुए भूल चुक मिटाकर गले लगने की प्रक्रिया हैं किंतु रात भर जगने के बाद सुबह में नाच, बाजा, तम्बू-सामियाना आदि का पैसा देना छाती फाड़कर कलेजा निकालने से जरा भी कम नहीं लगता।
अंत में समय आता हैं दुल्हन विदा होने का जिसमें दूल्हन जब घर वालों से अलग होती हैं तो रोती हैं बेटी की रुन्दन से उसकी माँ, बहन और सखियां भी रोती हैं।


हालांकि यह रोने वाला रस्म धीरे धीरे विलुप्त होते जा रही हैं।
तात्पर्य यह हैं कि शादी में वर और वधु दोनों पक्ष का इतना ज्यादा खर्चा होता हैं कि एक आम आदमी की जमापूंजी नील बट्टे सन्नाटा हो जाता हैं। दूसरी बात सामाजिक तौर पर भी गाँव, समाज शादी का प्रत्यक्षदर्शी होता हैं।

.....इसीलिये नहीं टूटती हैं शादियां!!
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सुजीत पाण्डेय छोटू
        बक्सर

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