Wednesday 7 February 2018

अल्फाज़

वक़्त के पन्ने पलटे तो अचानक ख्याल आया
खुद से कभी पूछा ही नहीं तुम गुजर कैसे गई ?

बहुत देर लगी खुद को समेटते समेटते
यादों की रेत हवा में ठहर कैसे गई ?

तन्हाइयों के कफन में बंधा है ये जिस्म
मैं तो मिट्टी नही थीं, बिखर कैसे गई ?

हर पल कतरा कतरा मारा था जिसे उम्र भर
अपनी वो लाश पहचानने से आज मुकर कैसे गई ?

बेदम बेजान आरजूओं के जनाजे देखे थे कई
अपनी ही कब्र देखी तो सिहर कैसे गई ?

खुद से कभी पूछा ही नहीं तुम गुजर कैसे गई ??

-----    पूर्वा अग्रवाल

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