वक़्त के पन्ने पलटे तो अचानक ख्याल आया
खुद से कभी पूछा ही नहीं तुम गुजर कैसे गई ?
बहुत देर लगी खुद को समेटते समेटते
यादों की रेत हवा में ठहर कैसे गई ?
तन्हाइयों के कफन में बंधा है ये जिस्म
मैं तो मिट्टी नही थीं, बिखर कैसे गई ?
हर पल कतरा कतरा मारा था जिसे उम्र भर
अपनी वो लाश पहचानने से आज मुकर कैसे गई ?
बेदम बेजान आरजूओं के जनाजे देखे थे कई
अपनी ही कब्र देखी तो सिहर कैसे गई ?
खुद से कभी पूछा ही नहीं तुम गुजर कैसे गई ??
----- पूर्वा अग्रवाल
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