Friday 9 March 2018

एक यात्रा ऐसा भी ।

#एक_यात्रा_ऐसा_भी

आज निकला मैं स्टेशन के लिए
साथ में था दो बड़ा-बड़ा सा बैग
मेट्रो  से जाने  का नहीं  था मन
यूँही निकले रिक्शे के लिए हम ।

बार-बार रिक्शेवाले आते-जाते
पूछते,  चलना है  क्या स्टेशन ?
मैं भी पूछता जाने क्या लोगे?
चालीस पचास रुपये सुनकर!

मैंने बोला बीस रुपये लोगे क्या?
सब आते घूमते हुए निकल जाते
हुआ नहीं कोई राजी छोड़ एक
पचास साल के बूढ़े पुराने बाबा ।

हुआ मैं सवार उस रिक्शे पर
रास्ते में था ट्रैफिक घनघोर
बचते-बचाते धीरे-धीरे चलते
फिर रुकते,फिर चलते-रुकते ।

रास्ते में दूसरे गाड़ी वालों की
यदा-कदा बात भी सुनते हुए
पल भर में दिमाग अड़ गया
भई,ऐसी भी क्या जिंदगी है?

अवाक हुआ  इस सवारी से
पैर के जोर निरंतर देख कर
बूढ़े बाबा की पगड़ी सरकती
किसी तरह स्टेशन पहुँचाती।

याद किया अपना एक दिन
रोटी मुश्किल होती दो जून
जिंदगी लगी सच में जंग हैं
ट्रैफिक में दुर्घटना क्या कम हैं?

दिये निकाला  रुपये पचास
उनको नहीं थी इतनी आस
सन्तुष्ट हुआ पहले उतरकर
देख उनका मन टटोलकर ।

वास्तव में बहुत गरीब हैं हम और हमारा समाज ।

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