Sunday 31 May 2020

गँगा दशहरा

आज गँगा दशहरा हs.
माने गँगा आजुवे के दिन धरती पे आइल रहीं। गँगा के मईया, माँ, देवी के नॉव अस्तित्व आ संस्कृति के बचावे खातिर दिहल गइल। आदि काल से इ मानल गइल बा की मनुष्य के जवना आ जेकरा से आम जनमानस के फायदा भइल बा उ पूजनीय,वंदनीय साक्षात बा जइसे गौ, गंगा, तुलसी, नीम ,पीपर, सुरुज भगवान आदि। 

लगभग हर सभ्यता के विकास नदी घाटी से ही भइल मानल गइल बा, जइसे सिंधु घाटी सभ्यता,, सिन्धु सरस्वती सभ्यता माने हड़प्पा संस्कृति आदि।

माँ गँगा के धरती प ले आवे में महान प्रतापी राजा भागीरथ के जवन देन रहे उकरा के हिन्दू संस्कृति कबो भुला नईखे सकत, बाकिर सोचे वाली बात ई बा की आजु हमनी के आपन संस्कृति रूपी थाती सहेजे खातिर कतना सजग बानी जा?? 

गँगा जी के पानी बहुत पवित्र मानल गइल बा एह पानी मे अइसन खूबी बा की कतनो दिन रखला के बाद भी इकरा में कवनो गंध भी ना आवे। वैज्ञानिक शोध से ई भी बतावल गईल बा की गँगा जी के पानी मे बैक्टीरिया होला जवन बाकिर जीवाणु के मार देला। गँगा जी के पानी मीठ होखला के वजह से ही "डॉलफिन" जईसन मछरी मिलेली सन जवन की बहुत दुरलभ जाती के मछरी होली सन।


नेपाल, बांग्ला देश के साथे साथ हमनीके देश मे माँ गंगा के आँचर में बसे वाला राज्य उत्तराखंड, यूपी, बिहार आ बँगाल मेन बा, माँ गंगा से ई क्षेत्र के कतना फायदा बा रउआ सभ आराम से सोची विचार क के आंकलन कर सकत बानी जा। 

 आस्था के दूरवेव्हार
 समाज आज भी आपन कुछ पुरातन व्यवहार के चलते कुछ अईसन काम करता जवन की आवे वाला काल्हु खातिर गँगा मईया के अस्तित्व के लगातार मिटावे प तुलल बा जबकि इकर वेद पुराण आ आध्यात्मिक रूप से कवनो लेखा जोखा नईखे जइसे की 

1) प्लास्टिक में फूल भरी के बहा दिहल
2) अगरबत्ती के खोखा के बहावल
3) आलपिन, नया कपड़ा पहनें के बाद पुरान बहा दिहल।
4) साबुन शेम्पू के डिब्बा फेकल 
5) दतुवन क के जेने तेने फेंक दिहल
6) दाह संस्कार संस्कृति में त बा बाकिर ले गईल सब सामान बहावल आदि नईखे।

 इस सब जहाँ तहाँ फेक के कूड़ा करकट फईलावल घाट के गंदगी आ बीमारी के बढ़ावा दिहल बा एह विषय मे सबके जागरूक होखे के चाहिँ, गँगा जी के किनारे जवन भी बाचल सामान बा ओह के ओहिजा के कूड़ादान में ही डाले के चाहिँ। 

[बक्सर जिला में यदि गँगा मईया के बात होई त ओह में छात्रशक्ति के नॉव जरूर लिहल जाई। लगातार 2013 से " हर रविवार गँगा किनार" मुहिम छेड़े वाला छात्रशक्ति के हर एक सदस्य आज अपना निस्वारथ मेहनत के बदौलत आज गँगा मईया के अस्तित्व  बचावे खातिर खाड़ बाड़े, जवन एगो उल्लेखनीय आ बेजोड़ पहल बा।]

हर हर गंगे 🙏🙏
[ फ़ोटो क्रेडिट:- श्री मुकेश पाण्डेय चंदन]
✍️ सु जीत पाण्डेय छोटू।

Sunday 10 May 2020

मदर्स डे स्पेशल

माँ का नाम ही आशा और  चिंता हैं!
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आज सुबह में ही एक मित्र का सलाह आया।
आप भी " मातृ दिवस" पर कुछ लिखिये!"
मैंने उनकी बात एकाएक मना करना उचित नहीं समझा।

लिखने के लिए कलम उठाया ही था कि
" कलम रुक गई।"
 फिर दुबारा कोशिश किया,, 
 कि लिख लूँ लेकिन जितना भी लिख पाया वह ये हैं।

##

आज मैं जो कुछ भी लिखने जा रहा हूँ, इसकी देन माँ हैं। अगर मैंने दुनिया में अब तक जो कुछ भी देखा  उसका सौभाग्य भी माँ हैं।

" माँ भले मेरी हो, आपकी हो या किसी की भी हो,, अलग नहीं होती ममता से,मोह से और नेह-छोह से।"

खुद सोती नहीं रातभर, जब तल्ख सुला लेती,
तनिक अलसाती नहीं गीले बिछौने को देखकर, 
ठिठुरती ठंड हो या हो चिलचिलाती धूप,
करती नहीं रात और दिन का परवाह, 

खुद भूखी सो जाती अलसाई,
 रहती नहीं मुझे बिन खिलाई,
 
अरे, माँ तो बस माँ हैं,
हैं नहीं कोई इसकी तुरपाई।

बेच देती हैं तन के जेवर हमारे सपनों को बुनने में,
 झगड़ पड़ती हैं घर में सबसे हमारी कमियाँ ढकने में, 

अरे!, बैंक के खाते भी दीमक खा जाते हैं,एक उम्मीद में।

अर्पण कर देती हैं अपना तन,मन,धन सब कुछ,
बस एक उम्मीद में,! बेटा हमारा बड़ा नाम करेगा।

जीवन के सफर में हर कोई सफल तो होता  नहीं,
होते असफल बेटे के लिए रोती,
वह माँ हैं, 
माँ तो बस माँ हैं!

यक़ीनन,,,!
 माँ का नाम ही आशा और  चिंता हैं।

सुजीत पाण्डेय छोटू
       बक्सर

Wednesday 6 May 2020

मच्छड़ हूँ!!

#मच्छड़_हूँ!!

रहता हूँ रातभर  टिका निरंतर
जाल पर अपनी आस टिकाकर
मन को एकदम दृढ़निश्चयी कर 
अबकी बार पेट भर लूँगा, मच्छड़ हूँ!!

हर शाम को जज्बे में आकर
लोगों को पहले धमका कर
जोर-जोर स्वर तान सुनाकर
लोगों को शंकित कर जाता हूँ, मच्छड़ हूँ!!

जब लोगों के पास मैं जाता हूँ
अपनी याचना सुनाता हूँ,
पुरजोर गुहार लगाता हूँ 
अंतिम संकल्प बताता हूँ, मच्छर हूँ!!

भूखे पेट की बात बताता हूँ
मिनट भर पास सटने दो तुम
मेरी भूख जरा मिटने दो तुम
मेरी अतृप्त प्यास बुझा दो तुम, मच्छर हूँ!!

दृग के आँसू बरसाता हूँ
पर लोग कहाँ सुनने वाले 
चट एक थाप लगाते हैं
फिर किसी तरह बच जाता हूँ, मच्छर हूँ!!

फिर मैं तो ठहरा स्फूर्ति दार
समाज में था एकदम बेकार
कोई भी हक़ मुझे दे न सका
अपना कलंक अब धो न सका, मच्छर हूँ!!


जब देह में होती भूख की तड़प
निकलने लगती हैं प्राणों से रूह
अब अंतिम कोशिश कर जाता हूँ 
क्रोधित हाथों से कुचला जाता हूँ, मच्छर हूँ!!

सु जीत पाण्डेय छोटू

Friday 20 September 2019

पापा। मुझे छोड़के चले जाओगे न!

पापा। मुझे छोड़के चले जाओगे न!

कमली अपने चार भाई-बहन में दूसरे नंबर की थी। बहुत नटखटी, बातूनी और पूरे घर की दुलारी.. बात भी करती तो तुनक तुनक कर ऐसे जैसे सबकी नानी हैं।
अभी आठ बरस की ही थी कि पढ़ाई के साथ रसोई में मम्मी के सारे कामों में हाथ बटाती थी और सबसे मेन काम था उसका बरतन माँजना. ऐसे भी बच्चों की सहनशक्ति और व्यवहार को माँ बाप पहले ही भाँप लेते हैं और उसी के अनुसार उसे काम दिया जाता हैं।
रामेश्वर बड़का बाबूजी के घर से रोज दूध लाना हो या घर में कभी नमक, कभी हरी मिर्च या फिर धनिया पता आदि घर में न रहने पर पड़ोस से उधार लाने के लिए उसे ही अक्सर भेजा जाता। अपने घर के साथ-साथ आस पड़ोस की भी वह लाड़ली थी।
घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी.पापा खेती-बधारी करते थे जिससे साल भर के लिए अनाज तो हो जाता लेकिन कभी कुछ पैसे की भी जरूरत पड़ती तो अनाज दो-तीन बोड़ा बेचने के बाद ही घर का काम चलता।
अब धीरे-धीरे चारो भाई बहन बड़े हो गए थे।  भाई था जो स्नातक करने और भर्ती के लिए भाग दौड़ करने के बाद भी कोई जॉब नहीं मिल रहा था. बड़ी बहन शादी करने के लायक भी हो गई थी और ऐसे में घर को एक ठोस आर्थिक मदद की जरूरत थी.
बड़ी बहन की शादी काफी रुपया पैसा कर्ज लेने के बाद संभव हुई अब तक उसके समझ में इतनी बात तो घर कर गई थी कि अब आगे की स्थिति और भी विकट आने वाली हैं।
बिना किसी ट्यूशन के ही बारहवीं (प्लस-टू) की पढ़ाई पास की, वह भी अच्छे नम्बर से.. सब उसकी बौद्धिक क्षमता से अवाक थे।
घर की परिस्थितियों से विवश आत्मबल से खड़ा होने की ठानी..उसे देश के लिए सेवा करने का बहुत मन था.. जब भी गाँव के लड़कों को सेना की वर्दी देखती उसका भी मन भी करता की
काश!
मैं भी देश की सेवा करती, बर्दी पहनती, 26 जनवरी के दिन राजपथ पर जैसे बाकी लड़कियां सैल्यूट करती हैं, मैं भी करती और घर की सारी जिम्मेदारियां चाहे दादी की इलाज का खर्च हो या बड़ी बहन की शादी में गिरवी रखीं ज़मीन को वापिस लेना, सबकुछ उठा लेती।
किसी सहेली से मालूम चला कि  सिपाही पद की भर्ती निकली हुई हैं..उम्र अभी हाल ही में 18 बरस की हुई थी लेकिन घर में किस से कहे कि मैं सेना में भर्ती होना चाहती हूँ..
किसी तरह साहस जुटाकर मम्मी से बताई और बात पूरे घर मे फैल गई...
लड़की को पुलिस/ सेना में जाना घर पर इज्ज़त के धब्बा जैसा था. खबर बड़े भाई के कान में पहुँची तो आकर खूब डांट फटकार लगाया लेकिन कमली की जिद्द के आगे उसका गुस्सा सिफर था और माँ ने हामी भर दी..
भरने दो जब इसका मन हैं तो.. मनमोहन चाचा की लड़कियां पुलिस में ही न है.. जरूरी थोड़ी है कि फॉर्म भरेगी और जॉइनिंग हो ही जायेगा..
धीरे-धीरे समय बिता और वह सभी फिजिकल के ईवेंट्स में पास कर खुशी खुशी घर लौटी साथ में उसके पापा भी थे.. वे भी बेटी की करतब और साहस से खुश थे लेकिन बड़ा भाई थोड़ा दुखी था।
मार्च का 19 तारीख पूरे घर के लिए एक सुखद संदेश लेकर आया.. डाक बाबू एक चिट्ठी लेकर घर आया और दूर से कमली को देखते ही जोर से चिल्लाया..
अरे कमली तू तो सिपाही बन गई.. पापा तुम्हारे कहाँ हैं?? उनसे मिठाई खाना बाकी  हैं बस.
कमली को अगले महीने की 10 तारीख को हैदराबाद ट्रेनिंग के लिए जाना था.. घर में कभी खुशी कभी गम का माहौल था.. ससुराल जाकर रुलाने वाली लड़की पिछले चार दिन से पुरे परिवार को रुला रही थी..
जॉइनिंग में जाने के लिए दु बोड़ा गेंहू बेचकर नया बैग, ब्रश कोलगेट, हॉर्लिक्स, किसमिश, चना और कुछ कपड़ों सहित उसका सबसे प्रिय एक बोतल आम का आचार रखा गया।
बाप बेटी घर से ट्रेनिग के लिए रवाना हुए और रोया घर के साथ साथ पूरा आस पड़ोस.. इतनी छोटी उमर में इतनी बड़ी जिम्मेदारी मिलना बहुत बड़ी बात थी..
रुलाई से निकली यह आँसू किसी ससुराल की विदाई से कम नहीं था.. कमली किसी तरह पूरे परिवार को समझाती रही और पर भाई की आँख से आँसू देखकर खुद को नहीं रोक पाई..
क्या करूँ मैं??
न जाऊँ...
भाई भी विवश था बहन को भेजने के लिए अब इतना दूर जहाँ उसकी बहन का ख्याल रखने वाला कोई अपना न था..माँ के जोर जबर्दस्ती करने पर किसी तरह से की-पैड वाला सैमसंग का मोबाइल दिया पर उसमें डलने वाला सिम उसके प्यार को नम कर देने वाला था..
आँसू पोछते हुए बैग उठाया और भारी पैर रखते हुए बस स्टेशन और उसके बाद दानापुर स्टेशन पहुँचा..
गाड़ी तीन घंटे लेट थी..
बहुत सारी बातें हुई. भाई लगातार समझाते बुझाते रहा कि गाड़ी के आने का अनाउंस हो गया..
बाप बेटी के साथ ट्रैन में आगे चलकर और भी कुछ लड़कियाँ और उसके परिजन दिखे..उनकी आपस मे भेंट मुलाकात हुई.. और अब धीरे धीरे सब कुछ बदल रहा था.. इतनी लड़कियों को देखकर बाप के मन मे कुछ सुकून और अपनी बेटी पर गर्व हो रहा था.
गाड़ी अपने गंतव्य पर पहुँचने को थी ही कि कमली अपने सारे समान इकठ्ठा कर लिया.. एक एक कर रही बेटी की गतिविधि को पापा गौर से देख रहे थे.. और मन ही मन कह रहे थे.
मेरा एक बेटा नहीं, दो बेटे हैं।
अन्ततः ट्रेनिंग सेंटर के गेट पर जब सामान लेकर सभी लड़कियां गेट के भीतर जा रही थी और उनके परिजन भावुक होकर नमी आखों से बेटियों को विदा कर रहे थे..
हरदम हँसकर बेफिक्र रहने वाली बेटी गेट से भागकर आई और पूछने लगी..
"पापा। मुझे छोड़के चले जाओगे न!"
दोनों वही फुट-फुटकर रोने लगे..
✍️सु जीत, बक्सर..
भाग-1 .. इंतजार कीजिये अगले पोस्ट के लिए..

Thursday 19 September 2019

#दिल्ली

जब भी मुबारक पुर चौक के फ्लाईओवर से गुजरता हूँ ऐसा लगता हैं तुमको बहुत दूर किये जा रहा हूँ खुद से..

तब खुद का खुद के लिए होना नहीं होता हैं तुम्हारे लिए होता हैं.. मजबूरियों से लड़ रहा मैं केवल अकेला ही नहीं न जाने कितने होंगे इस शहर में..



रोज दूर चले जाता हूँ तुम्हें छोड़कर और कुछ ही घंटों में वापिस आके मिल लेता हूँ.  इन मिलने-जुलने और बाद में बिछड़न से बनी दूरी एहसास कराती हैं तुम्हारी मधुता का, अपनत्व का और एक प्रेमी मन का जो उत्कट आकांक्षाओं में भी तुम्हे खोजता रहता हैं।

 बड़ा अजीब हुनर हैं तुममें.
 मैं तुझमें नहीं तुम मुझमें बसती हैं बरबस और बेहिसाब-सी।

जी करता हैं जीभर जिऊँ,  तुममें तुमतक होकर और जिंदगी बस तुमतक ही हो।

वीरान सी दुनिया में अपलक से भागती दौड़ती तो कभी हँसती मुस्कुराती तमाम तरह की अठखेलियाँ बसती हैं तुममें।


कुछ तो हैं कि बिसरती नहीं तुम, कितना भी भूलाये समा लेती हो अपने आपा में जहाँ न हम हम होते हैं और न कोई और दिखता कहीं।


एक बहुत बड़ी भीड़ हैं जो तुम्हें हर वक़्त नजरें टिकाए रखती हैं न दूर जाने देना चाहती हैं नजरों से.... बड़ी मुश्किल हैं इन जिंदगी के तमाशबीन दौर में सुलझना क्योंकि पता नहीं एक कूड़ा के ढेर मानिंद दिखते हैं विशाल पर, ये रहबर नहीं यहाँ के, बस मुफ़ीद हैं कुछ दिनों के..


तुम मुझसे प्यार करते हो या शहर से??
शहर से; क्योंकि मेरा शहर तुम हो..

#दिल्ली
एक बात पूछूं
नहीं, मुझे कुछ नहीं बताना।

ठीक हैं।

दो दिन बाद


मुझे एक जानकारी लेना था.
क्या??
नहीं कुछ!


Thursday 25 July 2019

सावन

आस्था की अगरबत्ती, नेह का दीपक, ललक की रोरी, निष्ठा का फल, श्रद्धा का फूल और सफ़लता की चाह का एक लोटा जल चढ़ाते., तब कहते थे.
हे शिव जी

अबकी बार फिजिकल जरूर निकलवा दीजियेगा. जीव जान लगाकर मेहनत कर रहे हैं और फल देना आपही के हांथ में हैं। जब आप चाह लेंगे न!, तो सब कुछ सही हो जाएगा.

बहुत सारे सपनों का पहाड़ मन में पड़ा हुआ हैं, बस एक हाली देह में बर्दी आ जाये, माई बाबू आ परिवार की बदहाली दूर करके अपने दुनियां में एगो नया सवेरा ला देंगे., पुरनकी साइकिल जिसका टायर घिस-घिस के ख़तम हो चला हैं, बिरेक मारने प तीन कदम दूर जाके रुकती हैं, मोटरसाइकिल खरीद लेंगे।


बड़की बहिन के बियाह में रखा हुआ बन्धकी खेत छुड़ाके दिन रात के घर का टेंशन ख़तम कर लेंगे नहीं तो गाँव के लोग बराबर हँस ते हुए कहते हैं..


"अब दिल्ली जाओ" , कुछ कमा धमा के आओ, 

नहीं तो तुमसे जिंदगी में कबो तुम्हारा खेत नहीं छूटेगा, बेंचना पड़ जायेगा। भर्ती के नाव पर कब तक आस लगाके रखोगे. वैसे भी आज कल का मेरिट 80 से ज्यादा पर ही बन रहा हैं और ऊपर से फिजिकल निकालना, मेडिकल निकालना तो दूर की बात हैं.. लोग आठ दस लाख रुपया घुस लिए बैठे हैं, तुम्हारा क्या हैं??


हे भगवान!, यदि नौकरी लग जाता तो सबके मुँह में कालिख पोता जाता.....और मेरे जिंदगी का सबसे बड़ा सपना बुलेट पर चढ़ने का पूरा हो जाता!

पुर्नवासी के दिन माई को बुलेट पर बैठा के गंगा जी ले जाता और  बाबू जी को बाजार बुलेट से ले जाता. उनकी भी दिली ख्वाहिश पूरा हो जाती.अपनी छोटकी बहिन का बियाह किसी नोकरी वाले लड़के से करता ताकि अब तक जितना दुख सही, 'सही' अब तो जीवन भर सुख शान्ती से रह सकेगी. और भी बहुत सारी मजबूरियां दिमाग जकड़े रहती हैं, नोकरी लग जायेगा तभी न ठीक से बियाह भी होगा नहीं तो साला जीवन भर दर दर का ठोकर खाकर कुँवारा ही मरना पड़ेगा।


न जाने कब आयेगी देही मे बर्दी..
एक सिपाही की भर्ती करने वाला लड़का का दर्द कौन समझेगा??.. भर्ती करने के लिये शुरू में बहुत जोश और ख़ुशी तो रहता हैं, ट्रेन में घूमने में खूब मजा आता हैं कभी कलकत्ता तो कभी दिल्ली, कभी जयपुर तो कभी सिकंदराबाद.. लेकिन चार पांच भर्ती में छटने, आर्मी की भर्ती में सुबह के तीन बजे से लेकर छव बजे तक धक्का-मुकी खाने, भीड़ में बड़े-बड़े डंडों से बेमर्र्वत पीटाने, हाड़ ठिठुराती ठंडी में खाली देह रहने और जरा भी कहीं कमी होने पर छंट के मुँह लटका के घर आने का दर्द भला कौन बता सकता हैं???


काँधे पर बैग लेकर जब भर्ती से घर आते हैं, गाँव से बाहर ही लोग मुँह देखकर ही बुझ जाते हैं फिर भी पूछ बैठते हैं..

काहो? का भईल हा!
ये रिजल्ट जानने की लोगों की उत्सुकता न खून खौला के जरा देती हैं बल्कि शर्म से सिर झुका के कहने को मजबूर कर देती हैं..
"छंट गइनी हा" 


घर में आते ही माई, जो सुबह से कुछ खाई नहीं हैं भगवान के पूजा करने से बाद, बाबूजी मन में भर्ती होने और बर्दी पहने हुए लड़के को देखने की आस लगाये रखे हैं औऱ  छोटकी जो मन में भाई के लिए न जाने क्या क्या सपने सजा रही होती हैं।

आते ही मुँह देखकर जान जाते हैं और उदास मन से बाबू जी कह देते हैं..

काहे चिंता किये हो??  फिर आयेगी भर्ती अबकी बार नहीं हुआ अगली बार मे होगा..


लेकिन मैं क्या बताऊँ की हमसे ज्यादा चिंता कौन कर रहा हैं, मेरे छंटने से दुखी कौन कौन  हैं....

कुछ भर्ती करने के बाद ऐसा लगने लगता हैं कि अब बर्दी की नोकरी मिलना मुश्किल ही हैं।


भर्ती में जाने के दौरान न रहने का कोई ठीक न खाने का कोई ठिकाना.कहाँ सांझ कहाँ बिहान,  निकल लेते हैं बिना किसी ठौर टिकाने के किसी स्टेशन के लिए जहाँ ट्रैन की ऐसी भीड़ का सामना करना पड़ता हैं जिसमें यमराज भी जाने से पहले तीन बार सोंचते हैं..
 फिर भी कैसे लटककर, ठुसाठुसी में गुजार देते हैं हजारों किलोमीटर का सफर...


यह एक भर्ती करने वाला से बेहतर कोई नहीं जानता.. बीच-बीच मे टीटीई को देखकर इस डब्बे में से भागकर अगले डब्बे में जाना, टीटीई से पकड़े जाने पर कॉलर पकड़ाकर जलील होना और पॉकेट का पैसा जबरदस्ती लिए जाने पर हथजोड़ी करके पचास रुपया वापिस लेना... माई के हांथ से बनी दु-तीन दिन की लिट्टी और ठेकुआ के साथ दस रुपये के छोला लेकर जीव जियाना.


भर्ती करने वाले का दर्द भला और कौन बुझेगा?
सर्दियों में सैकड़ों की भीड़ में एक चादर लेकर किकुर के सोना, रात भर जगकर मन में एक उम्मीद  बाँधना, शौचालय के लिए लंबी कतार में खड़ा होकर प्रेसर को कंट्रोल करना, दो तीन दिन तक बिना नहाये और एक ही कपड़े पहने समय गुजार देना।



##
भर्ती का आना एक उपहार जैसा लगता हैं. फॉर्म आता हैं, गांव जवार सब जगह हल्ला हो जाता हैं, फील्ड में पहुँचते ही चर्चा शुरू हो जाता हैं। पिछली बार एसएससी पैंतीस हजार निकाली थी तो गाँव के तीन लड़कों का हुआ था अबकी बार सीट जादा हैं, रेला सीट हैं साठ हजार.


अगले दिन नहा-धोकर, पूजापाठ करके डेग एगो पॉजिटिव मन से आगे बढ़कर गाँव के लड़कों को बोलकर फॉर्म की दुकान पर पहुँचते हैं...

फॉर्म का रेट पांच सौ सुनके हक्का बक्का हो जाना, ऊपर से फॉर्म भरने का पचास रुपया लगने पर दस रुपये समोसा के नाम पर छुड़वाना..

चलो पिछली बार छटे थे अबकी बार छोड़ेंगे नहीं. जी तोड़ मेहनत करेंगे. फिर फिजिकल निकला लेंगे. फिजिकल के बाद रिटेन में पसुराम सरजी से मैथ आ रीजनिंग पढ़ लेंगे या बक्सर कोचिंग क्लासेज से जाकर बढिया से तैयारी कर लेंगे.. सुमितवा उनके यहाँ ही पढ़ा था आज बीएसएफ में हैं.. छुट्टी आता हैं तो अपने बुलेट से गोड़ नीचे नहीं रखता हैं..,


भरती का दर्द सबसे बेहतर वह बता सकता हैं जो आठ-दस साल भर्ती करने के बाद, दु-दु हाली बलिया से मैट्रिक पास करने के बाद एज फ़ेल होकर अब टूट चुका हैं. तीसरी बार मन कुहुका के फिर मैट्रिक पास होकर भरती करना चाहता हैं लेकिन अब उसे लगता हैं भाग्य में भगवान वर्दी की नौकरी दिए ही नहीं हैं, बेकार में कोशिस कर रहे हैं..


##
एक समय ऐसा भी था जब हम जैसे नवयुवकों का आश्रय हुआ करता था यह मैदान!


भोर के तीन बजे ही एक दम एक मिनट ना इधर ना उधर होकर टिकटिकाने लगती घड़ी लेकिन नींद कहां आता. नींद में बस एक ही भूत सवार था अबकी बार की भर्ती बाँव नहीं जाने देंगे.. जी जान लगा देंगे.. अभी अपने मन में सँजोये सभी अरमानों को ढकना हैं, पूरा करना हैं उम्मीदों को सफलता की छाँव से..


कुछ साथी थे जो अनवरत जगके सबको जगाने के लिए निकल पड़ते थे, कभी तीन बजे तो कभी ढाई बजे ही और जगाने के लिए तब न कोई भिसिल थी और न कोई किसी के दुवार पर जाता पड़ता बल्कि इसके लिए कोड स्वरूप से आवाज था...
"कुड़ कुड़ कुड़ कुड़"


[माने उतना सुबह गांव में जो भी यह आवाज सुनता, समझ जाता कि लड़के दौड़ने के लिए जा रहे हैं. और अपने लड़के के बारे में सोचने लगता. पवनवा इंटर पास कर लेता हैं तो उसको भी मैदान में दौड़ने के लिए भेजेंगे.]


और इतना सुनते ही हाथ में होता एक लोटा पानी, एगो गमछी और एगो उम्मीद रूपी साहस, की आज सात चक्कर मारेंगे और किसी से पीछे नहीं रहेंगे।
फील्ड पहुँचें और शिव जी को गोड़ लागकर मन ही मन प्रण लेते हैं भगवान आज दौड़ में सबसे आगे दौड़ने की शक्ति दीजियेगा, भले जान ले लीजिए बाकिर जो सबसे पीछे रहने का कलंक हैं उसे मिटा दीजिये, नहीं तो भीमवा फिर कह देगा..

बैय, ई लोग मजाक करने ही मैदान में आता हैं।

इस बात में कठोर कड़वाहट होती किन्तु मैं और पंकजवा और ठठा के हँस पड़ते.. हमलोगों की हँसी से भीम खून घोंट कर रह जाता।



[ नोट:- पढ़ने के बाद शायद आप भी खुद को इसके इर्द-गिर्द महसूस करेंगे.. कल सोमारी के दिन फील्ड देखकर मन से उपजा विचार, कुछ लोगों की मानसिकता यह हैं कि बिना घुस का भर्ती नहीं होता कोई बेहतर हैं इसे मन से निकाल दें और जो लड़के अपने बेहतर कल के लिए जी जान लगा रहे हैं, उनके हौसलें को कृपया करके न तोड़िये। लिखने में  व्याकरण की अशुद्धियाँ होगीं,  इसके लिए क्षमा चाहूँगा। ]

✍️सु जीत

Sunday 30 June 2019

पत्र

सेवा में,
    माननीय प्रधानमंत्री जी
    भारत सरकार
      

द्वारा:- उचित माध्यम

विषय:- गोप भरौली, सिमरी जिला- बक्सर ( बिहार) में सड़क निर्माण के संबंध में.

श्रीमान,
         विषय अंतर्गत निवेदन है, कि आजादी के सत्तर वर्ष से अधिक बीत जाने के बाद भी ग्राम गोप भरौली ब्लॉक सिमरी जिला बक्सर (बिहार) के हम लोग एक दो फिट की पगडंडियों पर चलने को विवश हैं । और मूलभूत सुविधाओं से कोसों दूर हैं।

आदरणीय बरसात के दिनों में जहाँ हमें किसी रोगी या प्रसव पीड़िता को डेढ़ किलोमीटर दूर खाट पर कीचड़ में लथपथ होकर अस्पताल ले जाना पड़ता हैं ।  तो वही बच्चों का स्कूल जाना पूरे बरसात भर ठप हो जाता हैं। गांव में कोई भी चार या तीन पहिया वाहन गर्मियों के अलावा (तब खेत खाली होते है ) अन्य ऋतुओं में नही आ पाता है ।

जिला प्रशासन के पास कई बार पत्राचार करने के बाद भी हमारी समस्या का दस्तावेज लंबित पड़ा हुआ हैं और किसी की कोई सुध नहीं हैं।

लोक शिक़ायत में आवेदन देने के बाद भू-अर्जन विभाग द्वारा कोई ठोस कारवाही नहीं की जा रही हैं, ताकि हमारी समस्या का हल निकले।

श्रीमान जी, अवगत कराना चाहूँगा की हमारे गाँव को मुख्य सड़क (आशा पड़री- सिमरी) से जोड़ने के लिए दो तरफ़ से रोड के लिए भू स्वामियों की सहमत थी लेकिन किसी एक तरफ से भी नहीं बन रहा हैं।

महोदय से सादर विनती हैं कि हमारी साढ़े ग्यारह सौ लोगों की पीड़ा को ध्यान में रखते हुए मात्र डेढ़ किमी के संपर्क मार्ग हेतु संबंधित अधिकारियों को अग्रिम कार्यवाही हेतु आदेश दिया जाय, इसके लिए समस्त ग्रामीण जनता आभारी रहेगी..

प्रार्थी

समस्त ग्रामीण
गोप भरौली,
ब्लॉक सिमरी  जिला:- बक्सर ( बिहार)

Tuesday 18 June 2019

मुजफ्फरपुर

क के माँग हर जगह उठावे वाला बिहार में तवाँ जाला,
हरदम चिचियात रहे गरीबन खातिर, ऊहो मुँह लुकवा जाला
हं, बिहारियो बिहारी के दुख अब भुला जाला।

देस-बिदेस में बसल बाड़ें बड़हन नेता, अभिनेता आ पत्रकार
बाकी अब त राजनीति करे में लोग अझुरा जाला।
हं, बिहारियो बिहारी के दुख अब भुला जाला।

लाश जतने छोट आवे, तन-मन के ओतने झकझोरेला
बेबस माई-बाप, परिवार के करेजा चरचरा जाला
हं, बिहारियो बिहारी के दुख अब भुला जाला।

बहरी के एगो छोटो घटना, टीबी के बड़ खबर बनेला
बिदेसो से हरसंभव मदत, सांत्वना आ सलाह आ जाला
हं, बिहारियो बिहारी के दुख अब भुला जाला।

फिकिर में के बा, बाढ़ में हर साल दहत बिहार बा
बिकास पुरुस कागजी, गरीबी-पलायन प चुपा जाला
हं, बिहारियो बिहारी के दुख अब भुला जाला।

बेमउअत मउअत के जबाबदेह के बा, गरीब के सँघाती-इयार के बा
जे आपन केहू बिछुड़े त असली दरद बुझा जाला
हं, बिहारियो बिहारी के दुख अब भुला जाला।

रोज टीबी प रोवत माई बाबू के आँखि देखी सुजीत के अँखिया लोरा जाला
कब ले होइ निदान इहे चाहे ला मनवा कसक जाला
हं, बिहारियो बिहारी के दुख अब भुला जाला।

:- सु जीत, बक्सर।

[विशेष अभार:- श्री कृष्णा जी पाण्डेय]

Thursday 13 December 2018

चुनाव

चुनाव आ गईल

गाँवे गाँवे नेतन के पइसार हो गईल
का मानी ए भइया, चुनाव आ गईल।

खेती में कम भईल अनाज के दरद
नेताजी के  होखे लागल देखी-देखी दरद
आस्वासन आ कृषी लोन माफ के बहार आ गईल
का मानी ए भइया, चुनाव आ गईल।

उजरे उजर सूट-बूट वाला लोगन के भारमार हो गईल
गली,चौक-चौराहा प मीट आ दारू के बहार आ गईल
लोगन के सुख-दुख में लोर बहावे के हद पार हो गईल
का मानी ए भइया, चुनाव आ गईल।

गरीब के झोपड़ी देखी उड़ल नेता लो के खोपड़ी
बात बात प चु-चु,  चु-चु आ आह भरे के बार आ गईल
हाथ जोड़े,माथ झुका के गोड़ लागे के हद पार हो गईल
का मानी ए भईया, चुनाव आ गईल।

जीते वाला जीती के फरार रहले साढ़े चार साल
हारे वाला फेरु ना झकले जबले बीतल चार साल
बोलोरो,इस्कार्पियो के धुरी देखी "छोटुआ" हैरान भ गईल
का मानी ए भईया, चुनाव आ गईल।


[कतने साल बीतत,नेता लोसे अब विश्वास पार हो गईल
रोड ख़ातिर निहार लोगन के आँखी से अन्हार हो गईल
अबकी बार फेरु झूठन के तेव्हार आ गईल
का मानी ए भईया, चुनाव आ गईल।]

सुजीत, बक्सर।

Monday 5 November 2018

शुभ दिवाली

जा एगो दीया पुरनका घरे भी जरा दिहs.

सन्ध्या हो चली थी। समय लगभग साढ़े पांच बजने वाले थे। गावँ के ज्यादातर लड़के नहा-धोकर एक थाली में मिट्टी के सात-आठ दीये, घी से लिपटी हुई बाती और एक माचिस लिये तेजी से जा रहे थे। इन जाने वाले लड़को का गंतव्य था कोई गावँ के ब्रह्म बाबा, काली माई, डीहबाबा या शंकर भगवान का शिवाला।

माँ बार बार कह रही थी। लेट हमारे घर में ही होता हैं। सब लोग चल जायेगा तब तुम जाओगे। भगवान के पास दीया शाम को जलाया जाता हैं रात में नहीं। जल्दी जाओ देर हो चुका हैं।

फटाफट नहा धोकर एक थाली में कुछ दीये, बाती और एक माचिस लिए मैं भी निकला, चूंकि मुझे लगता हैं कि दीये जलाने वालों में से मेरा नाम अन्तिम दस लोगों में होगा।
जल्दीबाजी ऐसी थी कि चप्पल लगाना भी भूल गया था। ब्रह्मबाबा, बजरंग बली, शंकर भगवान के स्थान पर दीया जलाने के बाद पुराना घर की समीप जाते ही लौट गया अपने अब तक के चौदह पंद्रह साल पहले...

दिवाली का दिन था। पूरे गावँ में खुशी का माहौल था। सब अपने अपने छत पे चढ़कर पूरे दीवाल पर डिजाइन में मुम्बत्तीयाँ जलाने, फटाखे फोड़ने में मशगूल था। मेरे लिए भी भइया कुछ पटाखे लाये थे। पटाखों का वितरण सबके लिए किया गया।  मुझे जो भी मिला उसमें ज्यादातर छुरछुरी और एकादुक्का लाइटर और दो आकाशबाड़ी था।

"हम लड़को ने आपस में मिलकर छत पे एक छोटा सा दिवाली घर बना रखे थे। पहली बार मुझे एहसास हुआ था कि घर बनाना बहुत आसान काम हैं बस एक दो दिन में तो सबकुछ बन जाता हैं। दिवाली घर के छत पर  जाने की सीढ़ियां और उसके ऊपर एक पक्षी जिसको बनाने का श्रेय दीदी का था। घर की पेंटिंग और डिजाइन बनाने का काम बड़े भाई एवं मेरा काम था कुछ ईंटो, पीली मिट्टी, रंग, और समय समय पर बताये हुए काम को चपलता के साथ करना।"
उस बार की दिवाली  मेरे लिए दुखद सन्देश लाई थी। पटाखा छोड़ने के बाद पुनः छत से नीचे उतरके दो तीन पुड़ी सब्जी खाके दुबारा बचे हुए पटाखों को खत्म करने के लिए  छत पे गया।
इस बार का पटाखा थोड़ा ज्यादा खतरनाक था। जलाने के बाद बगल की गली में फेंकना चाह रहा था कि गली में न जाके बगल वाले पड़ोसी के फुस का भूसा रखने वाला  "खोंप" के ऊपर जा गिरा।
फिर क्या था मिनट भर की देरी में ही आग फैल गई और पूरे गाँव में आग आग हल्ला हो गया। जब एक छोटा भाई घर में बताया कि इसके कारण ही आग लगी हैं। पापा से मुझे खूब जम के धुलाई हुई और रोने की आवाज सुनकर जिनके यहाँ आग लगी थी आये और कहने लगे.
"बच्चे को मत मारिये आपलोग.. अनजान में गलती हो गई हैं उससे"
रोता हुआ मेरे मन में एक अलग ही आत्मीय सुखद आश्चर्य की अनुभूति हुई।
[ भले लोग के साथ हमेशा ही भला ही होता हैं। आज बेरोजगारी के दौर में उनके चार लड़को में तीन सरकारी जॉब में हैं]
मेरी तरफ से आप सभी को शुभ दीपावली

Thursday 20 September 2018

माँ की ममता

आज दूसरा दिन था.. मां बेहद आहत थी और उसे ऐसा लग रहा था कि बच्चा आँख खोल देगा...

गाड़ियों को आना-जाना लगा हुआ था. बगल के पुल पर और भी बहुत से बंदर देख रहे थे, उनकी आँखे भी गीली थी और मन में एक ही पच्छताप हो रहा था. हम क्यों बच्चे को लेकर इस रास्ते से गुजरे.

माँ अपने बेटे को जोर-जोर से झकझोरती और पुनः उठाने के लिये उसकी आँखें खोलती पर आँखे तो सदा के लिए बंद हो चुकी थी. कभी उसे दुलारती कभी पुचकारती तो कभी-कभी केले के टुकड़े को उसके मुँह तक ले जाती पर नहीं खाने पर गले लगाती और ऐसा लग रहा था कि वो  पूछना चाहती हैं " क्यों नहीं खा रहे हो?. कभी उसके बालों में से जुयें को निकालती और उसे खा लेती..

आने जाने वाले वे लोग जो पैदल या साइकिल से गुजरते और कुछ मिनट के लिए ऐसी घटना को देखकर भावुक हो जाते और यहाँ तक कि किसी- किसी के आँखों से आँसू भी निकल आते और उन्हें याद आती " माँ की ममता...

बीस घंटे गुजर चुके थे.और बंदरिया अपने बच्चे से बिल्कुल अलग नहीं हो रही थी. न उसे खाना की फिकर थी और न प्यास लग रही थी, बस उसे अपने बच्चे को काल के गाल से खींचने की आस लगी थी. शायद उस समय उसे खुद का भी प्राण त्यागने में भी कोई ग्लानि महसूस नहीं होती!

अन्त में देखा गया कि बंदरों की झुंड से एक बूढ़ा बंदर  निकला, ऐसा लग रहा था वो उनलोगों का शायद मुखिया हो और एक दो उसके सम उम्र बंदर उसके पास गये और कुछ देर वहाँ बैठकर कुछ आपस मे बात करने लगे. शायद वो जीवन-मृत्यु के रहस्य और सहानुभूति प्रकट करा रहे थे.

दस मिनट बाद अब धीरे धीरे बाकी बन्दर भी इकठ्ठा होने लगे और उस बनदरिया को साथ लेकर चले गए. जाने के क्रम में बंदरिया बार बार पीछे मुड़कर देखती पर असहाय  हो पैर आगे बढ़ा लेती..

{ कृपया सड़क पर चलते समय ध्यान रखें, मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षियों के भी परिवार होते हैं। सुख- दुःख की अनुभूति उन्हें भी होती हैं}

@सुजीत, बक्सर.

Friday 7 September 2018

बरसात

कड़कड़ाती हुई बिजलीं की गर्जना पुरूब टोला से होते हुए दखिन की तरफ़ निकल गई और ऐसा लगा कि सीधे कपार पर ही गिरेगी.करेजा एकदम से धकधका गया, कांप गया पूरी तरह से, ऐसा लगा कि जीवन लीला ही समाप्त हो जायेगी.


 बगल में बैठे 'शेरुआ', जो गाय की चट्टी पर गहरी नींद में सो रहा था, लुत्ती के रफ्तार से कान और पूँछ दुनो पटकते हुए खड़ा होकर इधर उधर  भागने लगा।

सच में जब जब बरसात आती हैं न 'कभी खुशी कभी गम' वाला एहसास दिलाती हैं. इतना जोर जोर से बारिस होके एकदम से कीच कीच कर देता हैं. अभी कल ही रिंटुआ का पैर छटकने से कुल्हा मुछक गया, डुमराँव जाकर दिखाया गया, पूरे सात सौ रुपया लगा हैं.



जब तेज बारिश होने लगती हैं न तो छत से टप टप पानी चुकर पुरा घर पानी पानी कर देता हैं, छत से चुने वाला पानी के लिए दो बाल्टी और एक जग स्पेशल रखा जाता हैं और इसके लिए घर का सबसे छोटा लड़का डिटेल किया जाता हैं, जो बार बार पानी बाहर आँगन में या चापाकल तक फेंकता हैं और इसका मेहनताना पाँच रुपये वाला 'छोटा भीम" के लिए दिया जाता हैं..


बारिस इतना जोरदार हो रही हैं कि गड़हा नाला नाली सब  भर गया हैं और तरह तरह के बेंग( मेढ़क) का जुटान हो गया हैं. लगता हैं कि रातभर इनका टर्र टर्र की बारात लगती रहेगी.


आसमान तो साफ हैं, बादल की घटा भी नहीं दिख रही हैं, आज जोलहा भी खूब उड़ रहा हैं..पक्षियों का झुंड भी आसमान में ऐसे कौतूहल कर रहा हैं जैसे कोई बड़ी ख़ुशी मिल गई हैं लेकिन इन सबसे इतर चार-पांच कौआ शिरीष के दंडल पर बैठें शोक सभा कर रहे हैं, देखकर ऐसा लगता हैं कि इन लोगों का आशियाना  उजड़ गया हैं।


नेवला का झुंड बगीचे से बाहर आकर अठखेली कर रहे हैं, शायद इनका भेंट साँप से नहीं हुआ हैं। पिछले साल की ही तो बात हैं., करियठ बड़का साँप और नेवले की लड़ाई आधा घंटा होते रह गई थी और अंत में सांप को हार मानना पड़ गया था..


सांझ का टाइम होने वाला हैं. मच्छड़ ऐसा लग रहे हैं कि आकाश में उड़ा ले जायेगे. भइसी के इंहा धुंआ करने का गोइठा भी भींज गया हैं. जो सियार सालों भर दिखते नहीं थे, एक दलानी के कोना में सुकुड़ कर बैठा हैं..

इस साल तो और दुलम हो गया, जो गाय/भैंस के रहने के लिए जो छावन करकट अभी पिछले साल खरीदा था, आँधि-पानी आने से बीचे से टूट गया हैं. ऐसा लगता हैं कि भगवान भी गरीबों को ही सताते हैं.


अरे, लड़का लोग खड़ा होके क्या देख रहा हैं.
ओ... लगता हैं कि किसी का मोटरसाइकिल फसा गया हैं करियठ माटी में. अब त उसका निकलना मुश्किलें हैं साँझ तक. आकाश में धनुषाकार इंद्रधनुष अपना सातों रंग बिखेर रहा हैं तो उसके बगल से 'गूंगी जहाज' गुजरते ऐसे दिख रही हैं जैसे कोई बगुला हो.


उधर पता लगा हैं कि गंगा जी भी बान्ह तक आ गई हैं.
लोग पूनी कमाने के लिए रोज  गंगा स्नान करने जा रहे हैं पर इन्हें पता नहीं कि पान साल पहिले इसी नदी में रमेशसर काका का गोड़ फिसल गया था और डूब गए थे.


लग रहा हैं कि  हथिया नक्षतर इस बार कबार के बरसेगी, काश! सोनवा भी खूब बरसता।, ताकि गिरहतो का अनाज साल भर खाने के लिये हो जाता और कुछ घर चलाने के लिए, ताकि आत्महत्या नहीं करना पड़ता.

खरिहानी में कुछ लोगों का समूह अर्धगोलार्द्ध रूप लेकर इन बरसात से इतर किसी राजनीतिक चर्चा पर अपना प्रसंग बांध रहा हैं. कोई अपने अनुभव को सर्वोच्च मनाने पर तुला हुआ हैं तो कोई उसे डाँट कर अपना ज्ञान बघार रहा हैं.  जिसे महज ये पता नहीं कि हमारे सूबे में लो.स. या विधान. सभा. की कितनी सीटे हैं वो भी अपना झंडा गाड़ने पर अडिग हैं. इसबार तो बीजेपी ही जीतेंगी....


Wednesday 29 August 2018

ग्रामीण परिदृश्य " भाग - 1"

ग्रामीण परिदृश्य भाग-1
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हम जागे हुए थे तब के,

जब सूरज भी चादर तान के सो रहे थे। घुप्प घनी अँधेरी रात थी, आ आसमान में तारों की टिमटिमाहट से जितना भी प्रकाश निकल रहा था,उपयुक्त था गाय-भैंस के खूँटा आ पगहा देखने के लिये।


गइया आधे घंटे से पूंछ पीट रही है, शायद मच्छर लग रहा हो। वैसे चरने जाने का समय भी हो गया है। कभी-कभी तो ऐसा लग रहा है मानो एक ही झटके में खूँटा तोड़कर खुले में दौड़ लगा देगी, आजाद हो जाएगी इन रस्सी-पगहा के बंधनो से। फिर जी भर चरेगी, जितनी हरियरी दिख रही है, मिनटों में साफ कर देगी।


चापाकल से लोटा में पानी भरते ही बछिया रंभाती है, उसे लगता है कि बस अब कुछ ही देर में चारा मिलेगा। एक लोटा पानी, खइनी की चुनौटी, और ललकी गमछी का मुरेठा बाँधने के साथ ही गाय-भैंस के साथ कूच करते हैं कुछ मील की दूरी के लिए।


सुबह-सुबह जब ठंडी पुरुआ हवा देह में लगती है तो ऐसा लगता है मानो अंग-अंग नहला देगी। रास्तेभर कहीं कीचड़ नहीं हैं। मकई के छोटे-छोटे पौधों की कोंपलों के ऊपर बारिस की कुछ बूँदें बिल्कुल मोती की तरह चमक रही हैं। अभी अभी  सावन बीते हैं।  रात में हल्की-फुल्की बारिस भी हुई थी, पर आसमान अभी साफ हैं। सप्तऋषि, अरे वही सतभइया, नीचे सरककर अस्त होते दिख रहे हैं। हरी पत्तियों के बीच गुलाब के फूल अपनी आभा बिखेर रहे हैं। चमेली की सुगंध रजुआ के बागान से चलकर दूर-दूर तक अपनी खुश्बू बिखेर रही है। बाकी पेड़ पौधे चिर निद्रा में सो रहे हैं।




“छह फुट लंबा कद, साँवला रंग, मोटी और घनी मूँछें, बड़ी-बड़ी आँखें और इन सबके मालिक कपिलचन जादो बाएं कांधे पर चद्दर डाले चले आ रहे हैं। उनकी आँखों मे ऐसी चमक जिसे देखकर सामने वाला क्या तलवार की धार भी बेधार हो जाए। अभी सत्तरवा सावन देखे हैं। एक समय था जब बंगाल में इनकी तूती बोलती थी, अखाड़े के सरदार थे, चित करने वाला कोई हुआ ही नहीं। वैसे प्यार से लोग ‘‘बिहारी पहलवान’’ के नाम से बुलाते थे। 


कुदरत का दस्तूर है कि उम्र के अंतिम पड़ाव पर आदमी को किकुरना पड़ता हैं। वो कहते हैं न कि समय की मार बड़ी भयावह और कष्टप्रद होती है, लेकिन कपिलचन जादो की आवाज अभी भी नौजवानों को मात देती है। समय बदला, कुछ साल गुजरे, मलकिनी तो पहले ही गुजर चुकी थीं, आखिरकार लौटकर आना पड़ा उन्हें अपने गाँव।


‘‘इस बार गाय-भैंस के लिए बहुत अच्छा संयोग बना हैं। सुबह से लेकर दोपहर तक चराते रहो, दोपहर में वहीं पीपर के नीचे गमछा बिछाकर सो जाओ और जब घड़ी में शाम के साढ़े पाँच बजे लौट आओ घर के लिए‘‘ कपिल जादो ने कहा।


हं जी, इसी को न कहते हैं “घर फूटे, जवार लूटे।“


‘‘दो भाईयों के आपसी झगड़े में इस बार आठ बीघा खेत परती (खाली) रह गया है। पहले राय जी लोग का झगड़ा को पर-पंचायत से ही सुलझ जाता था। आजकल थाना-पुलिस, कोर्ट-कचहरी सब हो जाता है, न कोई तो कोई सामाजिक बंधन है और न ही परिवार की मान-मर्यादा का ख्याल। वैसे लोग न जाने किस दुनिया में रहने लगे हैं, छोटे-मोटे झगड़े को भी कोर्ट-कचहरी ले जाते देर नहीं करते। मकान एक, दरवाजे तीन और उसमें भी रोज लड़ाई-झगड़ा। इसीलिए तो खेत की बुआई नहीं हो पाती, परती रह जाती है उनकी जमीन।‘‘ ललन काका ने कहा। 



‘‘हं, आठ साल से तो इस जमीन पर मुकदमा चल रहा हैं। अब खेती भला कोई कैसे करे। वैसे भी उनके घर में खेती करने वाला कौन है? दो लड़के हैं, दोनों नौकरी करते हैं-एक नोएडा  में है तो दूसरा पूना में। पहले जमीन का बंदोबस्त कर दिया जाता था, पर आपसी रंजिश में अब वह भी खाली पड़ी हैं।‘‘ मूँछों पर हाथ फेरते हुए कपिल जादो ने कहा।



‘‘घर-घर का यही हाल है। क्या अपना, क्या पराया! सब इहे चाहता है कि गाँव का जमीन-जायदाद बेचकर शहर में एक-आध कट्ठा के दरबा में रहना।‘‘ ललन काका ने कहा।


‘‘हं, अब गाँव की खेती-बारी भला किसे पसंद।‘‘ इस बार कपिल जादो निराश होकर बोले.


‘‘अब आप ही बताइए कि सभ लोग शहर में सुख से रहते हैं क्या? जो अप्पन जमीन-जायदाद आ डीह बेचा है, वो सुखी है क्या?‘‘ ललन काका खइनी मलने के बाद ठोकते हुए पूछे।


बरमेश्वर राय अपने गाँव भर में सबसे ज्यादा खेत वाले थे। पूरे जवार में उनका नाम था। छः फुट दो इंच का मर्द, शरीर से हट््ठा-कट्ठा, गोरा-चिट्टा, गज भर का छाती और ऊपर से जितने सख्त, अंदर से उतने ही मुलायम। कोई भी जमीन जायदाद का मामला हो या किसी बात के लिए झगड़ा-विवाद हो, पंचायत में उनकी बात हर कोई मानता था। उनके रहते कोई भी केस फ़ौजदारी नहीं होता था। वे न्याय के बिल्कुल पक्के आदमी थे।‘‘ इतना कहते ही कपिल जादो के आँख से आँसू टपकने लगे।

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उस साल बाढ़ आने की वजह से खेत में तो दूर खाने के लिए अनाज तक नसीब नहीं था। मेरी मंझली बेटी की शादी करनी थी, लड़का अच्छे घर-परिवार से था, पसंद आ गया, शादी तो तय हो गई लेकिन पैसा आये तो कहाँ से?‘‘ गमछे के कोर से अपनी आँखे पोछते हुए कपिल जादो ने बोलना जारी रखा। 


मैं उनका कभी एहसान नहीं भूल पाउँगा। नहीं चुका पाऊंगा उनकी नेकी। जब तक वह जिंदा रहे, तब तक दुआर पर दिन में एक बार जाना हो ही जाता था। शायद ही ऐसा कोई दिन गया हो कि उनके घर का चाय नहीं पिया मैंने! पर-परोजन, चाहे कोई भी फंक्शन हो, सबसे पहले मेरी पूछ होती। हर काम में कपिल... कपिल।



अपना दुखड़ा लेकर उनके पास पहुँचा था तो देखते ही मुझे पहचान लिए। बैठने का इशारा करते हुए पूछ बैठे - क्या बात है कपिल!, आज तनिक उदास लग रहे हो? मैंने अपनी पूरी बात बताई भी नहीं कि मुझे बीच में ही रोकते हुए बोले ‘‘अरे बेटी किसी एक की बेटी नहीं, पूरे गाँव की इज्जत होती है".. किसी सोच में मत पड़ो। हं, जब चाहे, जितने पैसे रुपये की जरूरत हो, बता देना। 


‘‘हं जी, पहले के लोग भी बड़े कलेजे वाले होते थे।‘‘ उदास भाव मे ललन काका ने खइनी थमाते हुए बोले।


गायों और भैसों के झुंड भी कुछ ही दूरी पर थे। पशुओं के इस झुंड में दो कुत्ते भी थे। एक काला रंग का और दूसरा उजला और भूरा रंग का, जो अक्सर लोगों के साथ ही कभी पेड़ की छाव में रहते या कभी-कभी झुण्ड के पास चले जाते। इन पशुओं के साथ कुछ पक्षी अठखेलियाँ कर रहे थे। बगुले कभी उनकी पीठ कभी चोंच मारते तो कभी पीठ के ऊपरी हिस्से, डील पर फिराते। फिर कभी सींग या कान पर जाकर कुछ कीलों को चुनते और खाते। ऐसा होते हुए भी पशु बड़े सुकून से घास चरने में व्यस्त थे।


सुबह के नौ बज चुके थे, और बहुत दूर जहाँ से आकाश और ज़मीन एक साथ जुड़ते हैं उस स्काईलाइन पर एक छोटा लड़का दिखाई दे रहा है। उसके हाथ में कोई बर्तन है जो सूरज की किरणों से चमक रहा है। शायद वो पानी या और कुछ खाने के लिए ला रहा हो।


बगल से गुजरते हुए ट्रैक्टर पर भोजपुरी गीत बज रहा है, बोल हैं-


ओढ़नी के रंग पिअर, जादू चला रहल बा...
लागता जइसे खेतवा में सरसों फुला रहल बा...


ट्रैक्टर अब दूसरी दिशा में मुड़ कर जा रहा है। पर मन गाना सुनने को लालायित हो रहा है, बाकी अंश सुनने को जी तरस रहा है। गाने के कुछ शब्द ट्रैक्टर की ककर्श आवाज तो कुछ ट्रैक्टर के दूर जाने से गुम होते जा रहे हैं। 


................................................भाग-11 

@सु जीत, बक्सर।