मन का राही

चल पड़ा हूँ बस कुछ सार्थक विचार और ढेर सारे सुनहरे सपनो से साथ

Sunday, 29 October 2017

सतर्कता जागरूकता सप्ताह 30.10 से 04.11

भाइयों,
हम सीधे- साधे गाँव के लोग है । भ्रष्टाचार शब्द सुने नही है लेकिन हॉ, कसम से सही अर्थ बता देंगे, क्योंकि बचपन से ही हम सन्धि विच्छेद करने में माहिर आदमी है ।

भ्रष्टाचार -  भ्रष्ट+ आचार ।

आचार की बात जब भी आती है, हमारे जीभ से पानी आने लगता है । यानी लालच बढ़ा देता है और यही लालच हमारे समाज को, राज्य को, और देश को बर्बाद करने लगा है ।

विश्व में भारत भ्रष्टाचार के मामले में 94वें पायदान पर है। भ्रष्टाचार के कई रंग-रूप है जैसे रिश्वत, काला-बाजारी, जान-बूझकर दाम बढ़ाना, पैसा लेकर काम करना, सस्ता सामान लाकर महंगा बेचना आदि।

भरष्टाचार ऐसी बीमारी है जो जनमानस के दिमाग को धीरे-धीरे खोखला बना देती है और इसके प्रभाव से सत्य और  ईमानदारी फीकी पड़ती जा रही है । आसमान पर उड़ने का हौसला रखने वाले को धरा नसीब होती है, हौसला रूपी सारे पंख टूट जाते है जब बगल का चिन्टूआ जो पढ़ने में तरह बाइस था, आज 10 लाख घुस  देकर स्टेशन मास्टर बन गया । ऐसे बहुत से चिन्टूआ  है जो बैंक पीओ, दरोगा, मास्टर और ना जाने क्या क्या बन जाते है जबकी तेज-तराज लड़को के हौसले पस्त हो जाते है और उम्मीदें ठंडी होकर पेट पालने के लिए निकल पड़ते है रोजी मजूरी करने ....

आजकल की भर्तीयो को आपने बेहद करीब से देखा होगा । सरकार के लाख लगाम लगने के बाबजूद पेपर का लीक होने आम बात बन चुका है । कभी SSC सीपीओ का पेपर लीक हो जाता है तो कभी सीजीएल का तो कभी सचिवालय क्लर्क का तो कभी बैंक पीओ का …..

भर्ष्टाचार दिमाग की ऐसी उपज बनते जा रहा है जिसका विनाश न होकर दिन प्रतिदिन फ़लीभूत
होते जा रहा है । इसमें कोई संसय नही की, इनमे कुछ ऐसे तंत्र मौजूद होते है जिन्हें अच्छी खासी माहवारी मिलती है, इसके बावजूद भी जेहन में ऐसी गंदी सोच को बढ़ावा दे रहा है ।

बैंकों में आपको लोन लेना हो या कोई संस्थान कोई जरूरी कागजात निकालनी हो । स्टेशन पर टिकट बनवानी हो या किसी धार्मिक संस्थान में माथा टेकने हो । आपको इन भ्रष्टाचारियो के माध्यम से होकर गुजरना मजबूरी बन जाता है और अगर ऐसा नही करो तो लोग बेवकूफ या अन्य नाम दे देते है ।

सतर्कता जागरूकता अभियान सप्ताह दिनांक 30 अक्टूबर से 04 नवंबर तक मनाया जा रहा है । जिसका मोटो है --

मेरा लक्ष्य -- भ्रष्टाचार मुक्त भारत ।

अगर हम सब ईमानदारी से अपना काम करे, ईमानदारो का साथ दे और समाज मे भरष्टाचारियों के खिलाफ़ लड़े तो हमारा सपना साकार हो सकता है । सतर्कतापूर्वक रहना हम सबकी जिम्मेदारी भी है । इसके खिलाफ लड़ाई उस भारतीय से शुरू होगी जो इस लड़ाई के अंतिम लाइन में खड़ा है ।

आजकल आधुनिक उपकरणों का अभाव नही है जो इनके विरुद्ध में मिशाल कायम कर रहे है पर जरूरत है इसे अधिक से अधिक विस्तार करने की । कुछ बेहतरीन माध्यम मोबाइल, कैमरे, सीसीटीवी आदि नकेल के मुख्य स्रोत है ।

🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

on October 29, 2017 1 comment:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
Labels: गोप भरौली सिमरी, बक्सर (बिहार)

Friday, 27 October 2017

प्रेम पत्र की आशा में 🤔

क्या जमाना आ गया भाई, एक समय था जब लोग 20- 30 दिन तक इंतजार करते थे की बबुआ को लोधियाना गए हुए एक महीना हो गया,अभी तक कोई खोज-खबर नहीं  भेजवाया । मां-बाप, दादा-दादी के साथ-साथ पूरे मोहल्ले के लोग चिंतित रहते थे। दोस्त रिश्तेदार भी आकर कुशलक्षेम पूछते थे ।

घर मैं मेहरारू अलगे छटपटा रही है । काली माई अऊर बरहम बाबा के किरिया सलोनीआ के बाबू खबर भेजवा देते कि हम ठीक हैं तो प्रसादी चढ़ाते और पूरे गांव में बंटवाते। इधर  सास-ससुर  से  कुछ कहने में  शर्म भी आ रहा है कि एक और चिट्ठी भेज दिया जाता तो शायद उनतक पहुँच जाता । अंत में  सासु जी से शरमाते हुए कहती हैं । अंतरदेशी मँगाती है और  चिट्ठी में  लिखती है 

प्रिय  पति परमेश्वर 
मैं  आपके  दुआ सलामत के लिए  मां काली जी से मनाया करती हूं  की  जो सुनकर  दिल खुश हो ।  यहां का  सब समाचार  अच्छा है  घर में सब ठीक-ठाक है। गाय बछिया दिया है और दूध भी खूब कर रही है । लेकिन आप नही है बस नही कमी है । आज कल सलोनी की स्कूल जाने की जिद में बबुआ जी नाम आंगनबाड़ी में लिखा दिया गया है । रोज सुबह सुबह उठकर फटाफट नहाधोकर बैग ले लेती है । अगर सबकुछ ठीक रहा तो मंटू जी के यहाँ टीशन पढ़ाएंगे, एगो तो लईकी है आँख के पुतरी .... अभी हमारे लिए सबकुछ यही न है ....
बाकी अपना धियान देना । खाने पीने में कोई कसर मत छोड़ना । हम उम्मीद करते है कि आप होली में घर आइयेगा और बुचिया के लिए कपड़ा लोधियाना से ही ले आइयेगा ।

आपकी अपनी
ABCD

दो बार चिट्ठी भेजने के बाद भी कोई खबर नहीं आया ना कोई चिट्ठी आया और ना ही कोई तार। परेशान होकर सलोनिया की आजी गांव के बंशीधर बो काकी के पास शगुन निकालने के लिए जाती है । एक डाली में गाय के गोबर के गोल बनाकर उसमें दूबी घास लगाकर मनौती करती हैं । अगर दुब ऊपर खड़ी जो जाय तो वही शुभ माना जाता और नीचे दब गई तो अपशगुन  । उनकी शगुन की चर्चा पूरे जवार में है ,आसपास के 2 कोस से लोग आते है ।

बीरजु चाचा दूसरी बार आकर समझा गए की लोधियाना में काम-धाम के चलते फुर्सत नहीं मिल रहा होगा और महीना में कहीं एक-दो दिन छुट्टी मिल जाता है इसलिए शायद  खबर नहीं भेज रहा है,  चिंता मत कीजिए सब कुछ बढ़िया है, रजुआ अगहन में वहाँ से आ रहा है वह सही बताएगा ।

मुझे लगता है कि उस समय लोगों में सुख, शांति और सुकून के साथ साथ मन में विश्वास था कि शगुन किया हुआ सही होता है । भला आज का समाज उसे कैसे स्वीकार करेगा। आज तो हर किसी को प्रत्यक्ष प्रमाण की जरूरत है। आजकल समाज में नाही बंसीधर बो काकी का शगुन का महत्व रहा और ना ही बंसीधर  चाचा के समझाने का कोई फायदा ।

@@
हम प्रतिदिन अखबारो  और टीवी चैनलों की सुर्ख़ियों में देखते हैं कि समाज में इसी असंतोष की भावना के चलते दिन  प्रतिदिन न जाने कितने लोग गलतफहमियों का शिकार होकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं ।  हां,  इसके पीछे कुछ लोगों की मजबूरिया भी हैं  और यह मजबूरी  ऐसी है कि जिसे मिटाया नहीं जा सकता और ना ही इससे कम किया जा सकता। हमारा समाज बहुबंधन मुक्त होना चाहता है, सबकी सोच यही है कि एकल परिवार में खुशी मिलेगी पर यह असंभव है ।

सुजीत पाण्डेय "छोटू"💐💐💐💐

on October 27, 2017 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest

Tuesday, 24 October 2017

आखिर क्यों दिल मे शुमार है छठ पर्व

Skip to contentद

आखिर क्यों हर बिहारवासी के लिए खास है छठ पर्व ।।

काँच ही बास के बहंगिया, बहँगी लचकत जाए ।
मूल गीत यही है जो सदियों से दादी-नानी, मॉ-बहने गाती चली आ रही है। आज भी इस गीत में कोई परिवर्तन नही हुआ, न मुखड़ा बदला और न अंतरा ।जब भी छठी मईया का यह गीत कानों तक पहुँचता है तन सिहर उठता है और मन की तरंगें घाट की ओर खींचने लगता है । 
दोस्तों से पूछना शुरू होता है । अरे भाई, कब से नान वेज बन्द करना है । नहाय खाय और अंतिम अरघ कितना तारीख को है ।
छुट्टी की जिद्द लिए बॉस के पास जाना, चेहरे पर भाव-भंगिमा उकेरना, विनम्र प्रार्थना के साथ छुट्टी के लिए विवश कराना, रिजर्वेसन न होने के बाद भी भाग भागकर गाड़ी पकड़ना,स्लीपर कोच में खचाखच भीड़ होने की वजह से टॉयलेट के पास खड़े होकर 14 घंटा बिताना , कैसे भूलेंगे ??
छत पर धोकर डाले गेहूं की पहरेदारी शुरू होती है । घर का सबसे छोटा लड़का का यह काम होता है और बड़ा लड़का बाजार से पूजा का समान के लिए नियुक्त होता है । पिछली बार छोटुआ गेहूं रखवाली से 1 मिनट हट गया था, खूब डॉट सुनना पड़ा था ।
बूढ़ी दादी सोये देखकर बड़बड़ाना शुरू करती है, सोये रहो सब घाट बना रहा है और तुम्हारा नींद पर यमराज आये है । 2 मिनट के बाद झट खुरपी, कुदाल, बाल्टी,लोटा लेकर गंगा किनारे या पुरखों से चले आ रहे जगह पर निकल पड़ते है । घाट पर घास साफ करना, बेदी बनाना, पीली मिट्टी और गाय के गोबर से लीपना भला कैसे कोई भूल सकता है ।
पृथ्वी पर साक्षात देवता भगवान सूर्य और माँ गंगा के समक्ष किया जाने वाला यह पर्व बहुत ही कठिन और उत्तम फल देने वाला है । इस पर्व में महिलाएं 36 घंटे बिना अन्न और जल के रहती है । इसकी शुरुआत 3 दिन  नहाय खाय, खरना, साय काल अर्घ और सुबह के अर्घ से होता है ।
12 साल बाद बटेशर जादो छठ करने आये है, नाती का सपना पूरा हुआ और इस बार गाँव से ही छठ के लिए आये है । लाल चटक रंग की कढ़ाई वाली साड़ी पहने भौजाई और उनकी छोटी बहन पर चर्चा करना तो वही दूसरी तरफ 70 साल के रामकेश काका को घर से लेकर घाट तक (भू-परी) लेट कर आना और इतनी बड़ी आस्था को देख सर झुकाना ।
डालडा या घी, चीनी या गुड़ के ठेकुए के साथ कुछ खट्टे तो कुछ मीठे फलो के साथ 7 फिट लंबे ईख खाने की ललक पैदा होने की जिद्द पर डॉट सुनकर सुबह तक खेशरिया का आश लगाना ।
घाट पर पटाखे फोड़ना, शीशी में आकाशबाड़ी डालकर आकाश में परीक्षण करना कि किसका रंग करता है और किसका बम फूटता है । रनुआ का नोयडा से पटाखा लाकर सबको दिखाना और छोटे छोटे बच्चों को छुरछुरी जलाना ।
जगमगाती लाइटो में पूरी रात लड़को के साथ जागकर घाट की रखवाली करना, कुत्ते भगाना, जेनेरेटर में तेल डालना और कृष्णलीला देखना, शायद आप भी नही भूले होंगे ।
जय छठी माता ।
sujit1992.blogspot.com
Advertisements

Share this:

  • Twitter
  • Facebook12
  • Google
जीवन का रेसिपी With 4 comments
कितना बदल गया इंसान With 1 comment
। दो जिस्म एक जान ।

Author: सुजीत कुमार पाण्डेय

मैं सुजीत कुमार पाण्डेय बिहार के जिला बक्सर प्रखंड सिमरी गाँव गोप भरौली का निवासी हूँ । View all posts by सुजीत कुमार पाण्डेय
Author सुजीत कुमार पाण्डेयPosted onOctober 24, 2017CategoriesUncategorized

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *
 

Post navigation

PREVIOUSPrevious post:क्रिकेट

  • Home
  • About
  • Contact
  • Twitter
  • Facebook
  • Google+
  • GitHub
  • WordPress.com
यात्रा वृतांत WordPress.com.








काँच ही बास के बहंगिया, बहँगी लचकत जाए ।
मूल गीत यही है जो सदियों से दादी-नानी, मॉ-बहने गाती चली आ रही है। आज भी इस गीत में कोई परिवर्तन नही हुआ, न मुखड़ा बदला और न अंतरा ।जब भी छठी मईया का यह गीत कानों तक पहुँचता है तन सिहर उठता है और मन की तरंगें घाट की ओर खींचने लगता है ।
दोस्तों से पूछना शुरू होता है । अरे भाई, कब से नान वेज बन्द करना है । नहाय खाय और अंतिम अरघ कितना तारीख को है ।
छुट्टी की जिद्द लिए बॉस के पास जाना, चेहरे पर भाव-भंगिमा उकेरना, विनम्र प्रार्थना के साथ छुट्टी के लिए विवश कराना, रिजर्वेसन न होने के बाद भी भाग भागकर गाड़ी पकड़ना,स्लीपर कोच में खचाखच भीड़ होने की वजह से टॉयलेट के पास खड़े होकर 14 घंटा बिताना , कैसे भूलेंगे ??
छत पर धोकर डाले गेहूं की पहरेदारी शुरू होती है । घर का सबसे छोटा लड़का का यह काम होता है और बड़ा लड़का बाजार से पूजा का समान के लिए नियुक्त होता है । पिछली बार छोटुआ गेहूं रखवाली से 1 मिनट हट गया था, खूब डॉट सुनना पड़ा था ।
बूढ़ी दादी सोये देखकर बड़बड़ाना शुरू करती है, सोये रहो सब घाट बना रहा है और तुम्हारा नींद पर यमराज आये है । 2 मिनट के बाद झट खुरपी, कुदाल, बाल्टी,लोटा लेकर गंगा किनारे या पुरखों से चले आ रहे जगह पर निकल पड़ते है । घाट पर घास साफ करना, बेदी बनाना, पीली मिट्टी और गाय के गोबर से लीपना भला कैसे कोई भूल सकता है ।
पृथ्वी पर साक्षात देवता भगवान सूर्य और माँ गंगा के समक्ष किया जाने वाला यह पर्व बहुत ही कठिन और उत्तम फल देने वाला है । इस पर्व में महिलाएं 36 घंटे बिना अन्न और जल के रहती है । इसकी शुरुआत 3 दिन  नहाय खाय, खरना, साय काल अर्घ और सुबह के अर्घ से होता है ।
12 साल बाद बटेशर जादो छठ करने आये है, नाती का सपना पूरा हुआ और इस बार गाँव से ही छठ के लिए आये है । लाल चटक रंग की कढ़ाई वाली साड़ी पहने भौजाई और उनकी छोटी बहन पर चर्चा करना तो वही दूसरी तरफ 70 साल के रामकेश काका को घर से लेकर घाट तक (भू-परी) लेट कर आना और इतनी बड़ी आस्था को देख सर झुकाना ।
डालडा या घी, चीनी या गुड़ के ठेकुए के साथ कुछ खट्टे तो कुछ मीठे फलो के साथ 7 फिट लंबे ईख खाने की ललक पैदा होने की जिद्द पर डॉट सुनकर सुबह तक खेशरिया का आश लगाना ।
घाट पर पटाखे फोड़ना, शीशी में आकाशबाड़ी डालकर आकाश में परीक्षण करना कि किसका रंग करता है और किसका बम फूटता है । रनुआ का नोयडा से पटाखा लाकर सबको दिखाना और छोटे छोटे बच्चों को छुरछुरी जलाना ।
जगमगाती लाइटो में पूरी रात लड़को के साथ जागकर घाट की रखवाली करना, कुत्ते भगाना, जेनेरेटर में तेल डालना और कृष्णलीला देखना, शायद आप भी नही भूले होंगे ।
on October 24, 2017 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest

Tuesday, 17 October 2017

दिलों की दीवाली, हैप्पी दीवाली ।

6 साल का रिंटूआ इस लिए सुबह से खुश था कि पापा कल शाम को जो पटाखे लाये है वो सुबह देने के लिए बोले है । मन की बेचैनी रात भर इसलिए सोने नही दी कि कही पापा फुलझड़ी और अकाशबाड़ी लाये है या नही । करवट लेते लेते ही सुबह 5 बजे गए, जगकर मम्मी को कहता है उठो, भोर हो गया है । तबतक आँगन में सोनुवा को देखकर,जाता है न जाने क्या क्या काना फूसी चलती है ।

पता नही बिटूआ के पापा कहाँ से पड़ाका लेकर आते है । लगता है एटम बम और छुरछुरी दोनो लुधियाना से ही लेकर आये है क्योंकि उसके जैसा किसी का आवाज नही आ रहा है ।  हॉ, अगले साल मैं भी चाचा से बोल दूँगा कि पटना से ही लाएंगे क्योंकि बक्सर में बढ़िया पड़ाका नही आया है । रहूला बोलता उठता है , भक्कक।। साला तुमलोगो को क्या पता, पिपरपाती रोड का पड़ाका का हाला है, मस्त आवाज करता है ।

10 साल का आरव पहली बार दीवाली में दिल्ली से आया है क्योंकि दिल्ली में पटाखा बन्द है । आरव की पटाखा छोड़ने की  जिद्द ने ही उनके पापा को इस बार घर बुलाया है । नही तो वे लोग आते कहाँ है । दादा दादी गाँव का सब खेत बेचकर अपना जैसे तैसे भोजन चला रहे है । 2 भाई है लेकिन कोई बात तक का नही पूछता । एक दिल्ली में परिवार के साथ है तो दूसरे बर्नपुर में , न जाने कितनी साँझ ऐसे निकल जाती है जब खाना भी नही बन पाता ।

भाई, परब तेव्हार तो केवल पैसे वालो का है । अब देखो निलेशवा के घरे पटाखा, मोमबती तो दूर खाने के भी लाले पड़े है । पता नही भगवान कहाँ सोये है, बेचारे का परिवार को क्या होली,दीवाली ....

आज दीवाली है । सबके घरों में साफ सफाई जोरो पर चल रही है वही रामेशवा निखट्टू बन बैठा है । आर्डर फरमाईस कर दोनों भाइयों से सुबह 6 बजे से काम मे लगाया है । एक भाई सुबह से झाड़ू लेकर पूरा घरों की सफाई तो दूसरा परसों से ही पेंट और रंगोली बनाने में लगा है । साल का परब है । माता लक्षमी साफ सफाई में ही बास करती है ।

लड्डूवा के चारो भाई  5 दिन से लड्डू और तरह तरह की मिठाईया बनाने में व्यस्त है बिक्री जोरों पर चलेगी इसलिए एडवांस में माँग की जा रही है तो वही नया भोजपुर स्थित रामपुर का पेड़ा के लिए सैकड़ो किलो का बुकिंग हो चुका है ।

बाजारों में मिल रहे चाइनीज इलेक्ट्रॉनिक झालर लाख बन्द के बावजूद भी जोरो पर बिक रही है । पिटुवा 500 का लाकर पूरे घर मे लगा चुका है । ऐसा लगता है कि पूरे गाँव मे लक्षमी पहले उसके घर ही आएगी । इसे देख  आधा गाँव पूरी तरह से मकानों को सजा दिया है । क्या खूबसूरत माहौल है ।

और मैं आप सभी को शुभ दीवाली बोलने को बेताब हूँ । माँ लक्षमी आप सभी के जीवन मे पैसे रुपये से ऐसे भरे कि खुद घनचक्कर में पड़ जाए

बैंक खोलें या फॉर्म हाउस

और श्री गणपति जी सुख, शांति और सौहार्द्र भर खुशहाल रखे । हम सबका आपस मे भाई चारा और परस्पर सहयोग के साथ दूसरे के सुख दुख में गले मिलकर एक स्वच्छ समाज बने, कामना करता हूं ।

।।शुभ दीवाली ।।

on October 17, 2017 1 comment:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
Labels: गोप भरौली सिमरी, बक्सर (बिहार)

Thursday, 12 October 2017

आज हम गरीब कैसे.....??

किसी देश की ताकत सैनिकों से और सम्पन्नता किसानो से होती है ।
क्या जमाना था जब खेदन काका गाँव के सरपंच साहेब के जूता पहन के बियाह करने गए थे तब आज जैसे लोग नही थे । किसी का कपड़ा, जूता चप्पल और कुछ भी सामान मांगने पर बहाना नही करते थे बल्कि खुशी खुशी देते थे, "खैर, आज के दौर में कोई माँगता भी नही और कमोबेश सबके पास जरूरत के हिसाब से उपलब्ध है । हाँ, किसी के पास नाईक, रिबोक, का जूता है तो किसी के पास उसका टु कॉपी Deebok या hike का ....
मुझे याद है एक बार रमेशवा का टी-शर्ट पहनकर सोनुवा अपना भैया के ससुरारी गया था तब साली सोनी इस कदर फिदा हो गई थी कि जैसे अक्षय कुमार से साक्षात दर्शन हो गए । जब रहा नही गया तो बोली जीजा जी बहुत कटाह अउर खूब इस्माट लग रहे है , सोनुवा भी बोल दिया था कि तोहके ले जाने आये है तोहार दिदिया बोलाई है। तब से सोनुवा टी-शर्ट देने का नाम ही नही ले रहा था .....आज मजाल है कि उतना महंगा टी-शर्ट साली की खुशी पर कोई कुर्बान कर दे ।
समय बदला,गरीबी हटी और आज कम से कम हर व्यक्ति को सही समय पर खाने को मिल जाता है । एक समय था जब दो जून की रोटी नसीब नही था,सुबह का खाना के बाद शाम को नही होता था, मसालेदार सब्जी भाग्य होने पर मिलता था कही काज परोज़न में ... अच्छे अच्छे घरों में सु-अन्न शायद ही कभी मिलता हो । गाँव में शादी बारात होने पर एक दिन पहले से लोग पेट खाली रखते थे कि कल पूड़ी है भरपेट मिलेगा । आज तो करिमाना डालडा और रिफाइन से परहेज करने लगा है और रसगुल्ला छोड़ पुलाव ही केवल खाता है ।
अपने जिंदगी के 7 दशक बीता चुके हरिहर बाबा कहते है कि पहले नसीब में पूड़ी पकवान तभी होता था जब कोई परब तेवहार आता । मकई, बाजरा की रोटी और उसी का भात बनाकर पेट की छुधा मिटाया जाता था ।
कलुवा इस बार दशहरा के मेला में चाट, जलेबी और रसगुल्ला न खाकर विदेशी खाना चौमिंग, बर्गर, पिजा और हॉट डॉग का परमाइस करने लगा । घुराहुवा डिमांड सुन के  भकुआ गया पर क्या कहा जाय आज के समाज के बारे में सबकुछ बदल गया है । सातू पियाज खाकर कलुवा के बाबू पता नही कब शहरी खाना के इतने शौखिन हो गए और बच्चों के साथ साथ चौमिंग का ऐसा सुरूर जगा कि सुबह का नास्ता पास्ता से ही करने लगें है ।
कल से सारांश इसलिए दुखी है कि उनके पास 4G का सेट नही है और उनके साथ वाले जिओ के साथ जी रहे है । तीन चार दशक पहले की बात करें तो पोस्टकार्ड और अन्तर्देशी पर हाल -ऐ-दिल का हाल कलमों के जरिये लिखे जाते और पहुँचने से जबाब आने में महीनों लग जाते थे, तब लोगो मे धैर्य और विश्वास था पर आज तो मिनटों में हाई प्रेशर, लो प्रेशर, बीपी और ना जाने कितने रोग निकल आकर हार्ड अटैक तक हो जाते है ।
कनिया कनिया और लुका-छिपी खेल का रिवाज तो बहुत पहले ही खत्म जब घर घर में HD टीवी और फिल्मों के साथ साथ सीरियलों का खुमार लोगो पर सवार हुआ । जो बच्चे मैदान के चीका, कब्बड्डी , खो खो खेलते थे,आज मोबाइल गेम और हॉरर मूवी देखने के ही व्यस्त रहते है ।
आज हम गर्व करते है कि पहले से बेहतर है और आगे विकास करते रहेंगे ।।
आपका छोटा भाई
sujit1992.blogspot.com

on October 12, 2017 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
Labels: गोप भरौली सिमरी, बक्सर

Monday, 9 October 2017

ङ्ग की भूमिका

आज हापुड़ जङ्गशन पहुँच मुझे हिंदी वर्णमाला में ङ्ग की भूमिका नजर आई, इससे पहले मैं  उक्त वर्ण के प्रयोग से अज्ञान था, यकीन करता हू मेरे जैसे और भी एकाध भाई होंगे । हमारे गुरुजी ने भी अब तक इसका उपयोग नही बताया और न ही मैंने जानने की कोशिश की ।

हमारे हिंदी वर्णमाला यह सदैव आधा ही प्रयोग होता है । कुछ उदाहरण है

पंकज
जंक्शन
अंग

उपरोक्त उदाहरण में ऊपर बिंदु का सीधा मतलब ङ्ग से है ।
आपको कैसा लगा जरूर बताएं ?

on October 09, 2017 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest

Saturday, 7 October 2017

गाँव समाज की खबर

चीनटुवा की शादी के अभी  20 दिन ही पूरे हुए थे कि दोस्तों की जदोजहद और नए शहरी माहौल से रु ब रु होकर खुद हनीमून के लिए गोवा की तैयारी बना लिया ।भला आज पेशे से इंजीनियर चिन्टूवा अब गाँव के रहन सहन, और सामाजिक विचारधारा से इतर शहरी फैशन में जीने लगा था ।

हरिहर चाचा आँगन में पहुचते है।...तब तक रनिया आकर कान में कुछ फुसफुसाती है ...खबर सुनकर भौचका रह जाते है। कान खोलकर सुन लो ई सब नया नया काम घर मे नही चलेगा ... अभी से ये मजाल .....कोई गोवा जाए, कोई बम्बे जाए...

समाज में कोई सुन लेगा तो नाक कट जाएगी...क्या जबाब दूँगा कि कल की आई बहु आज घर परिवार के बूढ़े बुजर्गो की सेवा करने के बजाय फुर्ररर हो गई । चिन्टूवा की माँ आकर चुप कराती है ....

घर में बैठे चिन्टूवा के मन का अरमान टूट गया... फ्लाइट का टिकट और गोवा का सपना अरमानो तले दब गया , कर ही क्या सकता था बेचारा....

किसी तरह साल भर गाँव में परिवार रखने के बाद और परिवार की सहमति से मेहरारू लेकर मुंबई पहुँचा ..
दूसरे दिन ही गेट वे ऑफ इंडिया के सामने भाभी के चटख गुलाबी रंग के लिपिस्टिक और स्टाइलिस जीन्स पहन एक्शन में फ़ोटो खीचकर फेसबुक पर छोड़ा ही था कि चन्दनवा फ़ोटो देखकर पूरे गाँव घर घर तक चिन्टूवा के मेहरारू का फोटो दिखा दिया और कहने लगा ...
गाँव में तो बड़ा सभ्य बनती थी ...खिड़की का केवाड़ी तक  नही खोलती थी ...घर से निकलने में बीता भर का घूँघट  गिराती थी और आज सेल्फी लेने में अपना होंठ सुगा के चोंच की तरह निकाल ली है ।

घरी भर के भीतर खबर हरिहर चाचा के पास पहुँचा। घर में परिवार का बिटोर हुवा और फोन चिन्टूवा को लगा ।
जा ऐ बाचा पूरा गांव में छि छि हो रहा है । ई सब पूरा गाँव कइसे देख रहा है । बूढ़े बुजुर्गों का कहना है कि औरत घर के चौखट के भीतर ही शोभा देती है । तपाक से फ़ोन चाची छीन लेती है और घर में भीतर घुस जाती है और समझाती है ।

अब चिन्टूवा पूरे परिवार को कैसे समझाये कि समाज से पर्दा प्रथा को हटाया जा रहा है कब तक पुराने विचारों में जिएंगे, कब तक सामाजिक बेड़ियों में जकड़े रहेंगे । खुद जीवन के 32 सावन देखने के बाद अब मैं नासमझ कहाँ, पर सबकुछ सुनकर मन ही मन और कुशलक्षेम कर फोन रख देता है ।।

आगे अभी शेष है ।।।

on October 07, 2017 3 comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
Newer Posts Older Posts Home
Subscribe to: Posts (Atom)

Blog Archive

  • ►  2020 (3)
    • ►  May (3)
  • ►  2019 (5)
    • ►  September (2)
    • ►  July (1)
    • ►  June (2)
  • ►  2018 (27)
    • ►  December (1)
    • ►  November (1)
    • ►  September (2)
    • ►  August (1)
    • ►  July (1)
    • ►  May (4)
    • ►  April (5)
    • ►  March (5)
    • ►  February (2)
    • ►  January (5)
  • ▼  2017 (32)
    • ►  December (1)
    • ►  November (4)
    • ▼  October (9)
      • सतर्कता जागरूकता सप्ताह 30.10 से 04.11
      • प्रेम पत्र की आशा में 🤔
      • आखिर क्यों दिल मे शुमार है छठ पर्व
      • दिलों की दीवाली, हैप्पी दीवाली ।
      • आज हम गरीब कैसे.....??
      • ङ्ग की भूमिका
      • गाँव समाज की खबर
      • मकई से पॉपकॉर्न की हकीकत
      • आधुनिकता की आँधी में अंधे हुए हम ।
    • ►  September (10)
    • ►  August (6)
    • ►  July (2)

Labels

  • ऊना
  • गोप भरौली सिमरी
  • जम्मू-कश्मीर ।
  • बक्सर
  • बक्सर (बिहार)
  • बिहार
  • भारतीय महिला विश्वकप 2017
  • सिमरी
  • हिमाचल

Report Abuse

मन का राही

चल पड़ा हूँ बस कुछ सार्थक विचार और ढेर सारे सुनहरे सपनो से साथ

Search This Blog

गँगा दशहरा

Popular Posts

  • मच्छड़ हूँ!!
    #मच्छड़_हूँ!! रहता हूँ रातभर  टिका निरंतर जाल पर अपनी आस टिकाकर मन को एकदम दृढ़निश्चयी कर  अबकी बार पेट भर लूँगा, मच्छड़ हूँ!! हर शाम को जज्बे ...
  • ।। हिंदी हमारी बिंदी है ।।
    दोस्तों,  आज फैशन,सुविधा और तकनीकी के बदलते परिवेश में हर कोई खुद को अपडेट रखने में व्यस्त है और ऐसी होड़ हमारे भविष्य को धनवान व सुविधा तो प...
  • ग्रामीण परिदृश्य । रामलखन की कहानी भाग 2
    खेतो  में सरसों के फूल खिल चुके थे और गेहूं भी फूल लेने को तैयार थे, फागुन के बयार से फगुनिया का मन भी फगुनहटा की हवा में बह जाने को बेकरार ...
Picture Window theme. Powered by Blogger.